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वक्ष पार्वति-दण्डनीति
उसने अपना शरीर त्याग दिया। इस घटना से क्रुद्ध हो- चलने वाला उपासक अपने को शिव मानकर पञ्चतत्त्व कर शिव ने अपने गणों को भेजा जिन्होंने यज्ञ का विध्वंस से शिवा (शक्ति) की पूजा करता है और मद्य के कर दिया। शिव सती के शव को कन्धे पर लेकर विक्षिप्त स्थान में विजयारस (भंग) का सेवन करता है । विजयाघूमते रहे। जहाँ-जहाँ सती के शरीर के अंग गिरे वहाँ- रस भी पञ्च मकारों में गिना जाता है। इस मार्ग को वहाँ विविध तीर्थ बन गये।
वामाचार से श्रेष्ठ माना जाता है । दाक्षिणात्यों में शंकर__दक्ष नाम के एक स्मृतिकार भी हुए हैं, जिनकी स्वामी के अनुयायी शवों में दक्षिणाचार का प्रचलन धर्मशास्त्रीय कृति 'दक्षस्मृति' प्रसिद्ध है ।।
देखा जाता है। वक्ष पार्वति-पर्वत के वंशज दक्ष पार्वति का उल्लेख शतपथ
दक्षिणाचारी-दक्षिणाचार का आचरण करने वाले शाक्त ब्राह्मण (२.४,४,६) में एक विशेष यज्ञ के सन्दर्भ में हआ उपासक । दे० 'दक्षिणाचार' । है, जिसे उसके वंशज दाक्षायण करते रहे तथा उसके दक्षिणामूति उपनिषद्-एक परवत्ती उपनिष प्रभाव से ब्राह्मणकाल तक वे राज्यपद के भागी बने रहे। दक्षिणामतिस्तोत्रवातिक-सुरेश्वराचार्य (मण्डन मिश्र) ने इसका उल्लेख कौषीतकि ब्राह्मण (४.४) में भी है। संन्यास लेने के बाद जिन अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया दक्षिणतःकपर्द-वसिष्ठवंशजों का एक विरुद (ऋ० वे उनमें से एक यह ग्रन्थ भी है। ७.३३.६), क्योंकि वे केशों की वेणी या जटाजूट बनाकर
र दण्ड-मनुस्मृति में दण्ड को देवता का रूप दिया गया है
पल उसे मस्तक के दक्षिण भाग की ओर झुकाये रखते थे। जिसका रङ्ग काला एवं आँखें लाल है, जिसे प्रजापति ने दक्षिणा-यज्ञ करने वाले पुरोहितों को दिये गये दान धर्म के अवतार एवं अपने पुत्र के रूप में जन्म दिया । (शुल्क) को दक्षिणा कहते हैं । ऐसे अवसरों पर 'गाय' ही दण्ड ही विश्व में शान्ति का रक्षक है । इसकी अनुपस्थिति प्रायः शुल्क होती थी। दानस्तुति तथा ब्राह्मणों में इसका में शक्तिशाली निर्बलों को सताने लगते हैं एवं मात्स्य न्याय और भी विस्तार हुआ है, जैसे गाएँ, अश्व, भैंस, ऊँट, फैल जाता है (जैसे बड़ी मछली छोटी मछली को निगल आभूषण आदि । इसमें भूमि का समावेश नहीं है, क्योंकि जाती है, उसी प्रकार बड़े लोग छोटे लोगों को मिटा भूमि पर सारे कुटुम्ब का अधिकार होता था और बिना डालते हैं)। सभी सदस्यों की अनुमति के इसका दान नहीं किया जा
___ दण्ड ही वास्तव में राजा तथा शासन है, यद्यपि इसका सकता था । अतएव भूमि अदेय समझी गयी । किन्तु मध्य
प्रयोग राजा अथवा उचित अधिकारी द्वारा होता है। युग आते-आते भूमि भी राजा द्वारा दक्षिणा में दी जाने
अपराध से गुरुतर दण्ड देने पर प्रजा रुष्ट होती है तथा लगी। फिर भी इसका अर्थ था भूमि से राज्य को जो
लघुतर दण्ड देने पर वह राजा का आदर नहीं करती। आय होती थी, उसका दान ।
अतएव राजा को चाहिए कि वह अपराध को ठीक तौल प्रत्येक धार्मिक अथवा माङ्गलिक कृत्य के अन्त में
कर दण्डविधान करे। यदि अपराधी को राजा दण्डित पुरोहित, ऋत्विज् अथवा ब्राह्मणों को दक्षिणा देना
न करे तो वही उसके किये हुए अपराध एवं पापों का, आवश्यक समझा जाता है। इसके बिना शुभ कार्य का
भागी होता है । मनु ने 'दण्ड' के माहात्म्य में कहा है : सुफल नहीं मिलता, ऐसा विश्वास है। ब्रह्मचर्य अथवा
दण्ड: शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति । अध्ययन समाप्त होने पर शिष्य द्वारा आचार्य (गुरु) को
दण्डः सुप्तेषु जागति दण्डं धर्म विदुर्बुधाः ॥ दक्षिणा देने का विधान गृह्यसूत्रों में पाया जाता है। बक्षिणाचार-शैव मत के अनुरूप ही शाक्त मत भी निगमों
[दण्ड ही शासन करता है। दण्ड ही रक्षा करता पर आधारित है, तदनन्तर जब आगमों के विस्तृत
है । जब सब सोते रहते हैं तो दण्ड ही जागता है । बुद्धिआचार का शाक्त मत में और भी समावेश हआ तब से
मानों ने दण्ड को ही धर्म कहा है।] निगमानुमोदित शाक्त मत का नाम दक्षिणाचार, दक्षिणमार्ग दण्डनीति–राजशास्त्र का एक नाम । यह शास्त्र अति अथवा वैदिक शाक्तमत पड़ गया। आजकल इस दक्षिणा- प्राचीन है। महाभारत, शान्तिपर्व के ५९वें अध्याय में चार का भी एक विशिष्ट रूप बन गया है । इस मार्ग पर लिखा है कि सत्ययुग में बहुत काल तक न राजा था, न ।
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