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त्र्यहःस्पृक-दक्ष के अवसर पर 'शतरुद्रिय होम' भी उपर्युक्त यज्ञ के ही समान शान्तिप्रदायक होता है। त्र्यहःस्पृक्-विष्णुधर्म० १.६०.१४ के अनुसार जब एक तिथि (६० घड़ी से अधिक) तीन दिन तथा रात का स्पर्श करती है तब उसे यहःस्पृक् कहा जाता है। इसमें एक तिथि की वृद्धि हो जाती है। त्रैलोक्यमोहनतन्त्र-'आगमतत्त्वविलास' की तन्त्रसूची
में उद्धृत यह एक तन्त्र है। त्रैलोक्यसारतन्त्र-'आगमतत्त्वविलास' की तन्त्रसूची में
उद्धृत यह एक तन्त्र ग्रन्थ है । त्वष्टा-वैदिक देवों में अति प्राचीन त्वष्टा शिल्पकार देवता है तथा देवों का निर्माणकार्य इसी के अधीन है। 'त्वष्टा' का शाब्दिक अर्थ है निर्माण करनेवाला, शिल्प- कार, वास्तुकार । विश्वकर्मा भी यही है । यह 'द्यो' का पर्याय भी हो सकता है। सभी वस्तुओं को निश्चित आकार में अलंकृत करना तथा गर्भावस्था में पिण्ड को आकृति प्रदान करना इसका कार्य है। मनुष्य एवं पशु सभी जीवित रूपों का जन्मदाता होने के कारण यह वंश एवं जननशक्ति का प्रतिनिधि है। यह मनुष्यजाति का पूर्वज है, क्योंकि प्रथम मनुष्य यम और उसकी पुत्री सरण्या का पुत्र है ( ऋ० १०.१६.१ ) । वायु उसका जामाता है ( ८.२६.२१ ), अग्नि ( १.९५.२ ) एवं अनुभाव से इन्द्र (६.५९.२; २.१७.६) उसके पुत्र है । त्वष्टा का एक पुत्र विश्वरूप है।
लोलौजज्जयिनी गुह्यः शरच्चन्द्रविदारकः । इसके ध्यान की विधि निम्नांकित है :
नीलवर्णां त्रिनयनां षड्भुजां वरदां पराम् । पीतवस्त्रपरीधानां सदा सिद्धिप्रदायिनीम् ।। एवं ध्यात्वा थकारन्तु तन्मन्त्रं दशधा जपेत् । पञ्चदेवमयं वर्ण पञ्चप्राणमयं सदा ॥
तरुणादित्यसंकाशं थकारं प्रणमाम्यम् ।। थं-यह माङ्गलिक ध्वनि है (मेदिनी)। इसीलिए संगीत के ताल में इसका संकेत होता है। इसका तात्त्विक अर्थ है रक्षण । दे० एकाक्षरकोश । थ–मेदिनीकोश के अनुसार इसका अर्थ है 'पर्वत' । तन्त्र में यह भय से रक्षा करने वाला माना जाता है। कहीं-कहीं इसका अर्थ 'भयचिह्न' भी है । शब्दरत्नावली में इसका अर्थ 'भक्षण' भी दिया हुआ है। थानेसर(स्थाण्वीश्वर)तीर्थ-यह तीर्थस्थान हरियाणा प्रदेश में स्थित है और थानेसर शहर से लगभग दो फांग की दूरी पर अत्यन्त ही पवित्र सरोवर है । इसके तट पर स्थावीश्वर ( स्थाणु-शिव ) का प्राचीन मन्दिर है। कहा जाता है कि एक बार इस सरोवर के कुछ जलबिन्दुओं के स्पर्श से ही महाराज वेन का कुष्ठ रोग दूर हो गया था। यह भी कहा जाता है कि महाभारतीय युद्ध में पाण्डवों ने पूजा से प्रसन्न शंकरजी से यहीं विजय का आशीर्वाद ग्रहण किया था। पुष्यभूति वंश के प्रसिद्ध राजा हर्षवर्द्धन तथा उसके पूर्वजों की यह राजधानी थी। प्राचीन काल से यह प्रसिद्ध शैव तीर्थ है।
थ-व्यञ्जन वर्णों के तवर्ग का द्वितीय अक्षर । कामधेनुतन्त्र में इसका तान्त्रिक महत्त्व निम्नलिखित प्रकार से बताया गया है :
थकारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डलीमोक्षदायिनी। विशक्तिसहितं वर्णं त्रिबिन्दुसहितं सदा ॥ पञ्चदेवमयं वर्ण पञ्चप्राणात्मकं सदा ।
अरुणादित्यसंकाशं थकारं प्रणमाम्यहम् ।। तन्त्रशास्त्र में इसके अनेक नाम बतलाये गये हैं :
थः स्थिरामी महाग्रन्थिन्थिग्राहो भयानकः । शिलो शिरसिजो दण्डी भद्रकाली शिलोच्चयः ।। कृष्णो बुद्धिविकर्मा च दक्षनासाधियोऽमरः । वरदा योगदा केशो वामजानुरसोऽनलः ।।
दक्ष-आदित्यवर्ग के देवताओं में से एक । कहा जाता है कि अदिति ने दक्ष को तथा दक्ष ने अदिति को जन्म दिया । यहाँ अदिति सृष्टि के स्त्रीतत्त्व एवं दक्ष पुरुषतत्त्व का प्रतीक है । दक्ष को बलशाली, बुद्धिशाली, अन्तर्दृष्टियुक्त एवं इच्छाशक्तिसम्पन्न कहा गया है। उसकी तुलना वरुण के उत्पादनकार्य, शक्ति एवं कला से हो सकती है। स्कन्दपुराण में दक्ष प्रजापति की विस्तृत पौराणिक कथा दी हुई है । दक्ष की पुत्री सती शिव से ब्याही गयी थी। दक्ष ने एक यज्ञ किया, जिसमें अन्य देवताओं को निमन्त्रण दिया किन्तु शिव को नहीं बुलाया। सती अनिमन्त्रित पिता के यहाँ गयी और यज्ञ में पति का भाग न देखकर
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