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दादूदयाल-दाम्पत्याष्टमी
भी बहुत बनाये हैं। कविता की दृष्टि से भी इनकी रचना दादूपंथी-दे० 'दादू', 'दादूपंथ' एवं 'दादूद्वार' । मनोहर और यथार्थ भाषिणी है । इनके शिष्य निश्चलदास, दान-इस शब्द का अर्थ है 'किसी वस्तु से अपना स्वत्व सुन्दरदास आदि अच्छे वेदान्ती हो गये हैं। उनकी रचनाएँ
हटाकर दूसरे का स्वत्व उत्पन्न कर देना।' दान (अर्पण) भी उत्कृष्ट हैं । परन्तु सबका आधार श्रुति, स्मृति और
का व्यवहार ऋग्वेद के अनेक स्थलों पर याज्ञिक हविष्य के विशेषतः अद्वैतवाद है। 'बानी' का पाठ केवल द्विज ही कर
विनियोग के अर्थ में हआ है, जिसमें देवता आमन्त्रित होते सकते हैं। चौबीस गुरुमन्त्र और चौबीस शब्दों का ही
थे । एक दूसरे प्रसंग में इसका अर्थ सायण 'मद का जल' अधिकार शूद्रों को है ।
लगाते हैं (मदमाते हाथी के मस्तक से टपकता हुआ मददादूदयाल-दे० 'दादू'।
बिन्दु) । एक अन्य मन्त्र में राथ महाशय इसका अर्थ चराबाबूद्वार-दादू के बावन शिष्य थे जिनमें से प्रत्येक ने कम
गाह लगाते हैं। से कम एक पूजास्थान (मन्दिर) स्थापित किया। इन परवर्ती धार्मिक साहित्य में दान का बड़ा महत्त्व वणित पूजास्थलों को 'दादूद्वार' कहते हैं। इनमें हाथ की है। यह दो प्रकार का होता है। नित्य और नैमित्तिक; लिखी 'वाणी' की पोथी की षोडशोपचार पूजा और चारों वर्गों के लिए दान करना नित्य और अनिवार्य है। आरती होती है, पाठ और भजन का गान होता है । साधु दान लेने का अधिकार केवल ब्राह्मणों को है। विशेष ही यह सब करते हैं और जहाँ साधु और उक्त पोथी हो,
अवसरों और परिस्थितियों में किसी भी दीन-दुखी, वही स्थान 'दादूद्वार' कहलाता है । 'नरायना' में दादू
क्षुधात, रोगग्रस्त आदि को जो दान दिया जा सकता है महाराज की चरणपादुका (खड़ाऊँ) और वस्त्र रखे वह भूतदया अथवा दीनरक्षण है। 'कृत्यकल्पतरु' (दान हैं । इन वस्तुओं की भी पूजा होती है।
काण्ड) एवं बल्लालसेन द्वारा विरचित 'दानसागर' ग्रन्थों
में अनेकों धार्मिक दानों की विधि और फल बतलाया गया दादूपन्थ-महात्मा दादू के चलाये हए धर्म को 'दादूपन्थ'
है । विष्णुधर्मोत्तर पुराण (३.३१७) भी ऋतुओं, मासों, कहते है, जो राजस्थान में अधिक प्रचलित है। दादूपन्थी
साप्ताहिक दिनों, नक्षत्रों में किये गये दानों के पुण्यों की या तो ब्रह्मचारी साधु होते हैं या गृहस्थ जो 'सेवक' कह
व्याख्या करता है। लाते हैं। दादूपन्थी शब्द साधुओं के लिए ही व्यवहृत होता है। इन साधुओं के पाँच प्रकार हैं : (१) खालसा, दानकेलिकौमुदी-रूप गोस्वामी कृत संस्कृत भाषा की इन लोगों का स्थान जयपुर से ४० मील पर नरायना में भक्तिरस सम्बन्धी एक पुस्तक। इसका रचना काल है, जहाँ दादूजी की मृत्यु हई थी। इनमें जो विद्वान हैं वे सोलहवीं शती का उत्तरार्ध है। उपासना, अध्ययन और शिक्षण में व्यस्त रहते हैं । (२)
दानलीला-सन्त चरणदास रचित ग्रन्थों में एक दानलीला नागा साधु (सुन्दरदास के बनाये), ये ब्रह्मचारी रहकर भी । सैनिक का काम करते हैं । जयपुर राज्य की रक्षा के लिए ये रियासत की सीमा पर नव पड़ावों में रहते थे। इन्हें
दानस्तुति-ऋग्वेद की लोकोपयोगी ऋचाओं में दानस्तुति जयपुर दरबार से बीस हजार का खर्च मिलता था । (३)
का प्रकरण भी सम्मिलित है। यह सूक्त १.१२६ में उत्तराडी साधुओं की मण्डली (पंजाब में बनवारीदास
प्रस्तुत है। अन्य ग्रन्थों में ऐसी दानस्तुतियाँ प्रशस्तिकारों ने बनायी), इनमें प्रायः विद्वान् होते हैं जो साधुओं को
की रचनाएँ हैं, जिन्हें उन्होंने अपने संरक्षकों के गुणपढ़ाते हैं। कुछ वैद्य भी होते हैं। ये तीनों प्रकार के
गानार्थ बनाया था। ये कहीं-कहीं ऋषियों तथा उनके साधु जो पेशा चाहें कर सकते हैं । (४) विरक्त, ये
संरक्षकों की वंशावली भी प्रस्तुत करती हैं। साथ ही ये साधु न कोई पेशा कर सकते हैं न द्रव्य छू सकते
वैदिक कालीन जातियों के नाम तथा स्थान का भी हैं । ये घूमते-फिरते और लिखते-पढ़ते रहते हैं । (५)
बोध कराती हैं। खाकी साधु, ये भस्म लपेटे रहते हैं और भाँति-भांति की दाम्पत्याष्टमी-कार्तिक कृष्ण अष्टमी को इस व्रत का अनुतपस्या करते हैं ।
ष्ठान किया जाता है। यह तिथिव्रत है। वर्ष को चार
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