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अर्थ नहीं है तथा परवर्ती काल की ऊँची संख्याएँ अत्यन्त उलझनपूर्ण हो गयी है । दशनामी - आचार्य शङ्कर ने वेदान्ती संन्यासियों का एक सम्प्रदाय बनाया, उन्हें दस दलों में बाँटा तथा अपने एकएक शिष्य के अन्तर्गत उन्हें रखा जो 'दसनामी' अर्थात् दस उपनामों वाले संन्यासी कहलाते हैं । ये दस नाम हैंतीर्थ, आश्रम, सरस्वती, भारती, वन, अरण्य, पर्वत, सागर, गिरि और पुरी ।
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दशनामी ( अलखनामी ) 'अलखनामी' का संस्कृत रूप
'अलक्ष्यनामा' है, अर्थात् जो अलक्ष्य का नाम ही जपा करते हैं । ये एक प्रकार के शैव संन्यासी हैं जो अपने को दसनामी शिवसम्प्रदाय के पुरी वर्ग का एक विभाग वत लाते हैं ।
दशनामी दण्डी - आचार्य शङ्कर के दमनामी संन्यासियों में 'दण्ड' धारण करने का अधिकार केवल ब्राह्मणों को है, किंतु इसकी क्रिया इतनी कठिन है कि सभी ब्राह्मण इसे धारण नहीं करते। ये दण्ड धारण करने वाले ब्राह्मण संन्यासी ही 'दसनामी दण्डी' कहलाते हैं ।
दशनामी संन्यासी दे० 'दशनामी' |
दशपदार्थ वैशेषिक दर्शन विषयक एक ग्रन्थ, जो ज्ञानचंद्रविरचित कहा जाता है । इसका मूल रूप अप्राप्त है किन्तु चीनी अनुवाद प्राप्त होता है, जिसे ह्वेनसांग ने ६४८ ई० में प्रस्तुत किया था ।
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दशपेय एक याज्ञिक प्रक्रिया वास्तविक राजसूय में सात
प्रक्रियाएँ सम्मिलित हैं । इसमें 'दशपेय' चैत्र के सातवें दिन मनाया जाता है। इसमें एक सौ व्यक्ति, जिनमें राजा भी एक होता है, दस-दस के दल में दस प्यालों से सोमरस पीते हैं। इस अवसर पर वंशावली की परीक्षा होती है। इसकी योग्यता, प्रत्येक सदस्य को सोमपान करनेवाले अपने दस पूर्वजों का नाम गिनाना होती है | दशमी - अथर्ववेद (३.४.७) तथा पञ्चविंश ब्राह्मण (२२.१४) मे ९० तथा १०० वर्ष के मध्य के जीवनकाल को 'दशमी' कहा गया है, जिसे ऋग्वेद (१.१५८.६) 'दशम युग' कहता है । वैदिक कालीन सुदीर्घ जीवन का बोध इस शब्द की व्याख्या से होता है। लोगों में 'शरदः शतम् जीने की अभिलाषा होती थी राज्याभिषेक में राजा के 'दशमी' तक जीवित रहकर राज्य करने की कामना की जाती थी । मनु का आदेश है कि 'दशमी' (९०वर्ष से अधिक ) अवस्था
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दसनामी - दशावतारव्रत
के शूद्र को त्रिवर्ण के व्यक्ति भी प्रणाम किया करें ('शूद्रोऽपि दशमीं गतः' अभिवाद्यः ) ।
दशरथचतुर्थी - कार्तिक कृष्ण चतुर्थी को
इस व्रत का अनु ष्ठान होता है। किसी मिट्टी के पात्र में राजा दशरथ की प्रतिमा का पूजन होता है । पश्चात् दुर्गाजी की भी पूजा होती है । दशरथतीयं - अयोध्या में रामघाट से आठ मील पूर्व सरयू
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तट पर वह स्थान है जहाँ महाराज दशरथ का अन्तिम संस्कार हुआ था । इसलिए यह तीर्थ बन गया है । दशरथललितावत आश्विन शुक्ल दशमी को इसका अनुष्ठान होता है। दस दिन तक देवी के सम्मुख ललिता देवी की सुवर्णप्रतिमा तथा चन्द्रमा और रोहिणी की चांदी की प्रतिमाओं का, जिनकी दायीं ओर शिवजी की प्रतिमा तथा बायीं ओर गणेशजी की प्रतिमा स्थापित होती है, पूजन करना चाहिए। दशरथ तथा कौसल्या ने यह व्रत किया या दस दिन की इस पूजा में प्रत्येक दिन अलग-अलग पुष्प प्रयोग में लाये जाते हैं ।
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दशग्वेद ( ८.८, २०, ४९: १, ५०, ९) में दशव्रज अश्विनीकुमारों द्वारा संरक्षित एक व्यक्ति का नाम है। दशशिप्र - ऋग्वेद ( ८.५२, २ ) में यह एक यज्ञकर्त्ता का नाम है ।
दशश्लोकी 'वेदान्तकामधेनु अथवा सिद्धान्तरल आचार्य निम्बार्क रचित एक संक्षिप्त ग्रन्थ है । इसके दस श्लोकों में ईसाईतमत के सिद्धान्त संक्षेप में कहे गये हैं। इसका रचनाकाल १२वीं शताब्दी का उत्तरार्ध संभवतः है। दशश्लोकी भाष्य महात्मा हरिव्यासदेव रचित यह भाष्य निम्बार्काचार्य के 'दशश्लोकी' ग्रन्थ पर है ।
दशहरा - विजया दशमी का देशज नाम 'दसहरा' या 'दशहरा' है । इस दिन राजा लोग अपराजिता देवी की पूजा कर पर राज्य की सीमा लाँघना आवश्यक मानते थे और प्रतापशाली राजा 'दसों दिशाओं को जीतने (हराने) का अभियान आरम्भ करते थे। दे० 'विजया दशमी' | दस महाविद्यारूपिणी दुर्गाजी की पूजा आश्विन शुक्ल दशमी को पूर्ण होती है, इस आशय से भी यह पर्व दशहरा कहलाता है ।
दशावतारव्रत - मार्गशीर्ष शुक्ल द्वादशी को यह व्रत प्रारम्भ होता है। पुराणों के अनुसार भगवान् विष्णु इसी दिन
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