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वघोचि-दमनकमहोत्सव
क्रम से उल्लेख है । दधि सोम में मिलाया जाता था। दधीचितीर्थ-यह सरस्वती नदी के तट पर है, इस स्थान 'दध्याशिर' सोम का ही एक विरुद है। परवर्ती धार्मिक पर महर्षि दधीचि का आश्रम था। इन्होंने देवराज इन्द्र साहित्य में दधि को सिद्धि का प्रतीक मानते हैं और के मांगने पर राक्षसों का संहार करने के उद्देश्य से वज्र माङ्गलिक अवसरों पर अनेक प्रकार से इसका उपयोग बनाने के लिए अपनी हड्डियों का दान किया था। करते हैं।
दनु-वर्षा के बादल का नाम, जो केवल कुछ ही बूंद दधीचि-एक अति प्राचीन ऋषि । सत्ययुग के दीर्घकाल में बरसाता है। दनु वृत्र (असुर) की माँ का नाम भी है । ही कई बार वेदों का संकोच-विकास हुआ है। महाभारत ऋग्वेद (१०.१२०.६) में सात दनुओं (दानवों) का वर्णन के शल्यपर्व में कथा है कि एक बार अवर्षण के कारण है, जो दनु के पुत्र है और जो आकाश के विभिन्न भागों ऋषि लोग देश के बाहर बारह वर्ष तक रहने से वेदों को घेरे हुए हैं। वृत्र उनमें सबसे बड़ा है । ऋग्वेद (२. को भूल गये थे। तब दधीचि ने और सरस्वती के पुत्र १२.११) में दनु के एक पुत्र शम्बर का वर्णन है जिसका सारस्वत ऋषि ने अपने से कहीं अधिक बूढ़े ऋषियों को इन्द्र ने ४०वें वसन्त में बध किया, जो बड़े पर्वत के ऊपर फिर से वेद पढ़ाये थे।
निवास करता था। पुराणों में दनु के वंशज दानवों की दधीचि के त्याग की कथा भारत के उच्च आदर्श की कथा विस्तार के साथ वर्णित है। द्योतक है । वृत्र नामक असुर को मारने के लिए जब देवों दन्त-ऋग्वेद तथा परवर्ती ग्रन्थों में 'दन्त' शब्द का प्रयोग ने दधीचि से उनकी अस्थियाँ माँगी तो उन्होंने योगबल बहुलता से हुआ है। 'दन्तधाव' एक साधारण कम था, से प्राण त्याग कर हड्डियाँ दे दी, उनसे वज्र का निर्माण विशेष कर यज्ञ करने की तैयारी के समय स्नान, क्षौर हुआ और उसका उपयोग करके इन्द्र ने वृत्त असुर का (केश-श्मश्रु) कर्म, नख कटाना आदि के साथ इसे भी वध किया । विष्णु और शिव के धनुष भी इन्हीं हड्डियों किया जाता था। अथर्ववेद में बालक के प्रथम उगने वाले से बनाये गये थे।
दो दन्तों का वर्णन है, यद्यपि इसका ठीक आशय अस्पष्ट दध्यङ् आथर्वण-एक ऋषि । ऋग्वेद में इनको एक प्रकार
है । ऐतरेय ब्राह्मण में बच्चे के दूध के दाँतों के गिरने का देवता कहा गया है (१.८०, १६; ८४, १२, १४;
का वर्णन है । ऋग्वेद में इस शब्द का एक स्थान पर ११६, १२; ११७, २२; ११९, ९), किन्तु परवर्ती संहि
गजदन्त अर्थ लगाया गया है। दन्तचिकित्सा शास्त्र ताओं (तैत्ति० सं० ५.१,४,४; ६,६,३; काठक सं० १९.४)
प्रचलित था या नहीं, यह सन्देहात्मक है। ऐतरेय एवं ब्राह्मणों (शतपथ ४.१,५,१८, ६.४,२,३; १४.१,१,
आरण्यक में हिरण्यदन्त नामक एक मनुष्य का उल्लेख है, १८,२०,२५,५,१३; बृहदा० उप० २.५,२२, ४,५.२८
जिससे यह अनुमान किया जाता है कि दाँतों को गिरने से आदि) में उन्हें अध्यापक का रूप दिया गया है । पञ्चविंश
रोकने के लिए उन्हें स्वर्णजटित किया जाता था। ब्राह्मण (१२.८,६) तथा गोपथ ब्राह्मण (१.५,२१) में दमनकपूजा-चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को इस व्रत का अनुष्ठान अस्पष्ट रूप से उन्हें आङ्गिरस भी कहा गया है।
होता है । इसमें कामदेव का पूजन किया जाता है। दधिव्रत-श्रावण शुक्ल द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान
दमनक पौधा कामदेव का प्रतीक है अतः उसको माध्यम होता है । व्रतकर्ता इस काल में दही का सेवन नहीं बनाकर पूजा होती है। करता।
दमनभञ्जी-चैत्र शुक्ल चतुर्दशी को इस नाम से पुकारा दधिसंक्रान्तिव्रत-उत्तरायण की (मकर) संक्रान्ति से
जाता है, इसमें दमनक पौधे के (स्कन्ध, शाखा, मूल तथा प्रारम्भ कर प्रत्येक संक्रान्ति को एक वर्ष तक इस व्रत का
पत्तों) प्रत्येक अवयव से कामदेव की पूजा की जाती है। आचरण होता है । भगवान् नारायण तथा लक्ष्मी की
दे० ई० आई०, जिल्द २३ पृ० १८६, जहाँ सं० १२९४ में प्रतिमाओं को दही में स्नान कराना चाहिए। मन्त्र या
विन्ध्येश्वर शिव के एक शिवालय निर्माण का उल्लेख तो ऋग्वेद, १.२२.२० होगा या 'ओम् नमो नारायणाय' किया गया है (गुरुवार १२ मार्च १२३७) । (वर्षकृत्यकौमुदी, २१८,२२२) होगा।
दमनकमहोत्सव-यह वैष्णवव्रत है । चैत्र शुक्ल चतुर्दशी को
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