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कालिंजर (कालजर)-काशिकावृत्ति
बलि देने का निर्देश भी है। बलिपशओं की तालिका लटकी हुई, कटि में अनेक दानवकरों की करधनी लटबहुत बड़ी है । वे है-पक्षी, कच्छप, घड़ियाल, मत्स्य, कती हुई तथा मुक्त केश एड़ी तक लटकते हुए होते हैं। वन्य पशुओं के नौ प्रकार, भैंसा, बकरा, जंगली सूअर, यह युद्ध में हराये गये दानव का रक्तपान करती हुई गैंडा, काला हिरन, बारहसिंगा, सिंह एवं व्याघ्र इत्यादि। दिखायी जाती है। वह एक पैर अपने पति शिव की भक्त अथवा साधक अपने शरीर के रक्त का भी अर्पण कर छाती पर तथा दूसरा जंधा पर रखकर खड़ी होती है। सकता है। रक्तबलि का प्रचार क्रमशः कम होने से यह आजकल काली को कबूतर, बकरों, भैंसों की बलि पुराण भी आजकल बहुत लोकप्रिय नहीं है।
दी जाती है । पूजा खड्ग की अर्चना से प्रारम्भ होती है। कालिंजर (कालञ्जर)-बुन्देलखण्ड में स्थित एक प्रसिद्ध
बहुत से स्थानों में काली अब वैष्णवी हो गयी है । दे० शैव तीर्थ । मानिकपुर-झाँसी रेलवे लाइन पर करबी 'कालिका'। से बीस मील आगे बटौसा स्टेशन है। यहाँ से अठारह कालीघाट-शक्ति (काली) के मन्दिरों में दूसरा स्थान मील दूर पहाड़ी पर कालिंजर का दुर्ग है। यहाँ नील- कालीघाट (कलकत्ता) के कालीमन्दिर का है, जबकि कंठ का मंदिर है । यह पुराना शाक्तपीठ है । महाभारत के प्रथम स्थान कामरूप के कामाख्या मन्दिर को प्राप्त है। वनपर्व, वायुपुराण (अ० ७७) और वामनपुराण (अ० ८४) यहाँ नरबलि देने की प्रथा भी प्रचलित थी, जिसे आधुमें इसका उल्लेख पाया जाता है। चन्देल राजाओं के निक काल में निषिद्ध कर दिया गया है। समय में उनकी तीन राजधानियों-खजूरवाह (खजु- कालीतन्त्र--'आगमतत्त्वविलास' में दी गयी तन्त्रों की राहो), कालञ्जर और महोदधि (महोबा)-में से यह
वाष (महाबा)-म स यह सूची के क्रम में 'कालीतन्त्र' का सातवाँ स्थान है। इसमें भी एक था। आइने-अकबरी (भाग २, पृ० १५९) में काली के स्वरूप और पूजापद्धति का वर्णन है। इसको गगनचुम्बी पर्वत पर स्थित प्रस्तरदुर्ग कहा गया
कालीव्रत-कालरात्रि व्रत के ही समान इसका अनुष्ठान है। यहाँ पर कई मन्दिर है। एक में प्रसिद्ध कालभैरव
होता है । दे० कृत्यकल्पतरु का व्रतकाण्ड, २६३,२६९ । की १८ बालिश्त ऊँची मूत्ति है। इसके सम्बन्ध में बहुत
...कालोत्तरतन्त्र-'आगमतत्त्वविलास' की सूची में उल्लिखित सी आश्चर्यजनक कहानियाँ प्रचलित है। कई झरने और सरोवर भी बने हुए हैं।
एक तन्त्र ग्रन्थ । यह दशम शताब्दी के पहले की रचना है। काली-शाक्तों में शक्ति के आठ मातकारूपों के अतिरिक्त काशकृत्स्न-एक वेदान्ताचार्य। आत्मा (व्यक्ति) एवं काली की अर्चा का भी निर्देश है । प्राचीन काल में शक्ति का ब्रह्म के सम्बन्धों के बारे में तीन सिद्धान्त उपस्थित किये कोई विशेष नाम न लेकर देवी या भवानी के नाम से गये हैं। प्रथम आश्मरथ्य का सिद्धान्त है, जिसके अनुसार पूजा होती थी। भवानी से शीतला का भी बोध होता आत्मा न तो बिल्कुल ब्रह्म से भिन्न हैं और न अभिन्न ही। था। धीरे-धीरे विकास होने पर किसी न किसी कार्य दूसरा औडुलोमि का सिद्धान्त है, जिसके अनुसार मुक्ति का सम्बन्ध किसी विशेष देवता या देवी से स्थापित होने के पूर्व आत्मा ब्रह्म से बिल्कुल भिन्न है। तीसरा काशलगा। काली की पूजा भी इसी विकासक्रम में प्रारम्भ कृत्स्न का सिद्धान्त है जिसके अनुसार आत्मा बिल्कुल हुई। त्रिपुरा एवं चटगांव के निवासी काला बकरा, ब्रहा से अभिन्न है। काशकृत्स्न अद्वैतमत का सिद्धान्त चावल, केला तथा दूसरे फल काली को अर्पण करते हैं। उपस्थित करते हैं। उधर काली की प्रतिमा नहीं होती, केवल मिट्टी का एक काशिकावृत्ति-पाणिनि के अष्टाध्यायीस्थित सूत्रों की गोल मुण्डाकार पिण्ड बनाकर स्थापित किया जाता है। व्याख्या । पतञ्जलि के महाभाष्य के पश्चात् वामन और __ मन्दिर में काली का प्रतिनिधित्व स्त्री-देवी की प्रतिमा जयादित्य की 'काशिकावृत्ति' का अच्छा प्रचार हुआ। से किया जाता है, जिसकी चार भुजाओं में, एक में खड्ग, हरिदत्त ने ‘पदमञ्जरी' नामक काशिकावृत्ति की टीका दूसरी में दानव का सिर, तीसरी वरद मुद्रा में एवं चतुर्थ भी लिखी है । महाभाष्य के समान काशिकावृत्ति से भी अभय मुद्रा में फैली हुई रहती है। कानों में दो मृतकों सामाजिक जीवन पर आनुषंगिक प्रकाश पड़ता है। इसका के कुण्डल, गले में मुण्डमाला, जिह्वा ठुड्डी तक बाहर रचनाकाल पांचवीं शताब्दी के समीप है।
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