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जावाल- जीव (जीवात्मा )
है। इसके चारों और पक्की दीवार और कोठरियाँ बनी हैं। बीच में दो मन्दिर हैं । प्रमोदवन से आगे पयस्विनी के तट पर जानकीकुण्ड है नदीतटवर्ती श्वेत पत्थरों पर यहाँ बहुत से चरणचिह्न बने हुए हैं। कहते हैं, वनवास काल में जानकीजी यहाँ स्नान किया करती थीं। जाबाल - याज्ञवल्क्य के एक शिष्य का नाम, यजुर्वेद अथवा वाजसनेयी संहिता का के साथ अध्ययन किया था । जाबालि - ( १ ) जाबालिसूत्र के रचयिता जाबालि मुनि थे । रामायण में जाबालि के कथन से यह प्रकट होता है कि रामायणकाल में भी नास्तिक बड़ी संख्या में होते थे ।
जिसने शुक्ल दूसरे चौदह शिष्यों
(२) छान्दोग्य उपनिषद् में जाबालि की उत्पत्ति की कथा है । जब वे पढ़ने के लिए आचार्य के पास गये तो आचार्य ने पूछा, "तुम्हारे पिता का क्या नाम है और तुम्हारा गोत्र कौन सा है ?" जाबालि को यह ज्ञात न था । वे लौटकर माता बाला के पास गये और कहा, "माँ, आचार्य ने पूछा है कि मेरे पिता का नाम क्या है और मेरा गोत्र कौन है ?" माता ने उत्तर दिया, "पुत्र, तुम्हारे पिता का नाम ज्ञात नहीं। जब तुम गर्भ में आये तो में कई पुरुषों के यहाँ दासी का काम करती थी। मेरा नाम जवाला है। आचार्य से कह देना कि तुम मातृपक्ष से जाबालि हो ।” बालक ने आचार्य के पास जाकर ऐसा ही निवेदन किया । आचार्य ने कहा, "तुम सत्यवादी हो, तुम्हारा नाम सत्यकाम होगा ।"
जाबालोपनिषद् - यह संन्यासवर्ग की उपनिषदों में से एक लघु उपनिषद् है । इस वर्ग की उपनिषदें वेदान्त सम्प्रदाय के संन्यासियों की व्यावहारिक जीवन सम्बन्धी नियमावली के सदृश हैं। यह चूलिका एवं मैत्रायणी के पश्चात् काल की है, किन्तु वेदान्तसूत्र एवं योगसूत्र की पूर्ववर्ती अवश्य है । इसका प्रारम्भ बृहस्पति और याज्ञवल्क्य के संवाद के रूप में होता है।
जाम्बवान् – जाम्बवान् को 'जामवन्त' भी कहते हैं । ये रामायणवर्णित ऋक्षसेना के नायक हैं। इन्होंने सीता के अन्वेषण और रावण के साथ युद्ध में राम की सहायता की थी। ये राम के युद्धसचिव भी थे। इनकी गणना भी अर्द्ध देवयोनि में होती है । कहते हैं कि ये ब्रह्माजी के अंश से अवतरित हुए थे ।
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जामदग्न्यद्वादशी – वंशाल शुक्ल द्वादशी को इस तिथिव्रत का अनुष्ठान होता है जामवन्य के रूप में भगवान् विष्णु की सुवर्णप्रतिमा का पूजन करना चाहिए ( जामदग्न्य परशुरामजी हैं) राजा वीरसेन ने इसी व्रत के आचरण से नल की प्राप्ति की थी।
जावा - (१) पाणिग्रहण संस्कार से प्राप्त धर्मपत्नी यह वैवाहिक प्रेम का विषय तथा जाति की परम्परा का स्रोत है ।
(२) जाया का एक अर्थ 'माता' भी है, अर्थात् 'जिससे उत्पन्न हुआ जाय' । क्योंकि पुरुष अपनी पत्नी से संतान के रूप में स्वयं उत्पन्न होता है, इसलिए पत्नी एक अर्थ में अपने पति की माता है ।
जालन्धर - (१) प्राचीन काल में यह एक सिद्धपीठ या ।
यह अमृतसर से उत्तर पंजाब के मुख्य नगरों में है । कहा जाता है कि जालन्धर दैत्य की राजधानी यही थी । जालन्धर भगवान् शंकर द्वारा मारा गया । यहाँ विश्वपुरी देवी का मन्दिर है । इसे प्राचीन 'त्रिगर्ततीर्थ' कहते हैं । वैसे कांगड़ा के आस-पास का प्रदेश त्रिगर्त है ।
(२) जालन्धर एक दैत्य का नाम है। पुराणों में इसकी कथा प्रसिद्ध है। इसकी पत्नी वृन्दा थी, जिसके पातिव्रत से यह अमर था । वही आगे चलकर भगवान् विष्णु को अत्यन्त प्रिय हुई और तुलसी के रूप में उनको अर्पित की जाती है। दे० 'वृन्दा' ।
जिज्ञासावर्पण - श्रीनिवास (तृतीय) आचार्य श्रीनिवास द्वितीय के पुत्र थे। इन्होंने 'जिज्ञासादर्पण' नामक ग्रन्थ की रचना की थी । यह विशिष्टाद्वैत मत का तार्किक ग्रन्थ है | जित्वा दीली-वृहदारण्यक उपनिषद् ( ४.१.२) में 'जित्वा शैली' विदेहराज जनक तथा याज्ञवल्क्य के समकालीन एक आचार्य कहे गये हैं । उनके मतानुसार 'वाक्' ब्रह्म है । जीव (जीवात्मा) - भारतीय दर्शन में जगत् को मोटे तौर पर दो वर्गों में विभाजित किया गया है— चेतन और जड़ । चेतन को ही 'जीव' संज्ञा दी गयी है जीवन, प्राण और चेतना के अर्थों में भी 'जीव' शब्द का प्रयोग होता है। जीव चेतन और भोक्ता है, जड़ जगत् उसके लिए उपभोग्य है । परन्तु यह विभाजन व्यावहारिक है । पारमार्थिक दृष्टि से विश्व में एक ही सत्ता है, वह है ब्रह्म जीव उसी का अंश और तबभिन्न है। जड़ जगत् भी इसी का प्रतिविम्ब अथवा स्फुलिङ्ग है । अध्यास अथवा अविद्या के कारण
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