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तुलसीलक्षपूजा-तैत्तिरीय आरण्यक
नाओं और पूजापद्धतियों का समन्वय भी उनकी रचनाओं तौला जाता था एवं फलस्वरूप अपराधी या निरपराध में पाया जाता है। वे आदर्श समुच्चयवादी सन्त कवि घोषित होता था, जबकि दूसरी बार पहली तौल की थे। उनके ग्रन्थों में रामचरितमानस, विनयपत्रिका, अपेक्षा वह कम या अधिक भारी होता था। इस प्रकार कवितावली, गीतावली, दोहावली आदि अधिक प्रसिद्ध हैं। इस परवर्ती दिव्य परीक्षा वाली प्रथा से पहले समय तुलसीलक्षपूजा-माघ अथवा कार्तिक मास के विष्णुपूजन में प्रयुक्त तूला को एक नहीं ठहराया जा सकता। में एक लाख तुलसीदलों का अर्पण करना चाहिए। प्रति । तुलादान-यह एक प्रकार का धार्मिक कृत्य है। इसमें दिन एक सहस्र तुलसीदलों के अर्पण का विधान है। दानी बहुमूल्य वस्तुओं-स्वर्ण, चाँदी, अन्न, रत्नादि से वैशाख, माघ अथवा कार्तिक मास में उद्यापन करना तौला जाता है। इन वस्तुओं का दान कर दिया जाता है। चाहिए। दे० स्मृतिकौस्तुभ, ४०८; वर्षकृत्यदीपिका, तेगबहादुर-सिक्खों के नवें गुरु । वृद्ध अवस्था में उन्हें ४०४-४०८। इसी प्रकार बिल्वपत्र, दुर्वादल, कमल या सम्प्रदाय की अध्यक्षता सौंपी गयी। उन्होंने अनेक पद चम्पा के फूलों को अन्यान्य देवों के लिए समर्पित किया
एवं स्तुतियाँ लिखी हैं। असहिष्णु मुगल सम्राट औरंगजेब जा सकता है।
ने उन्हें पटना में कारावास में डाल दिया और अन्त में तुलसीविवाह-कार्तिक मास में शुक्ल द्वादशी को तुलसी- मरवा डाला। सिक्खों का कहना है कि उसके पहले ही विवाह करने का बड़ा माहात्म्य है । विवाहवती को नवमी
गुरु तेगबहादुर यह भविष्यवाणी कर चुके थे कि यूरोपीय के दिन सुवर्ण की भगवान् विष्णु तथा तुलसी की प्रतिमाएँ लोग भारत में आयेंगे और मुगल साम्राज्य को नष्ट कर बनवाकर, तीन दिन तक लगातार उनकी पूजा करके बाद देंगे। इस भविष्यवाणी ने सिक्खों एवं ब्रिटिश सरकार में उनका विवाह रचना चाहिए। इस व्रत के आचरण से को मिलाने में यथेष्ट सहायता प्रदान की । गुरु तेगबहादुर कन्यादान का पुण्य प्राप्त होता है । दे० निर्णयसिन्धु, २०४; के पत्र दशम गुरु गोविन्दसिंह थे, जिनका जन्म पटना के व्रतराज, ३४७-३५२; स्मृतिकौस्तुभ, ३६६ । प्रत्येक हिन्दू कारागार में ही हुआ था। के आँगन में तुलसी का थामला रहता है जिसको वृन्दा- तेजःसंक्रान्तिवत-प्रत्येक संक्रान्ति के दिन इसका अनुवन कहते हैं। संध्या के समय हिन्दू नारियां तुलसी के ष्ठान होता है। एक वर्ष तक यह व्रत चलता है। इसमें वृक्ष की अय, धूप, दीप, नैवेद्यादि से पूजा करती हैं। सूर्य की पूजा होती है। पौराणिक पुराकथा के अनुसार जालन्धर असुर की पत्नी तेजोबिन्दु उपनिषद-योगमार्गीय उपनिषदों में से यह एक का नाम वृन्दा था, जो लक्ष्मी के शाप से तुलसी में उपनिषद् है । परिवर्तित हो गयी । पद्मपुराण (भाग ६, अध्याय ३-१९) तेवाराम-तमिल शिवस्तुतियों का एक संग्रह । सन्त नम्बि में जालन्धर-वृन्दा का लम्बा आख्यान पाया जाता है। द्वारा संकलित ग्रन्थ 'तिरुमुरई' में शिव की स्तुतियों का बाद में तुलसी रूप में उत्पन्न वृन्दा भगवान् की अनन्य संकलन है। इसमें पूर्ववर्ती सभी तामिल शैव कवियों की सेविका हो गयी। उसके समानार्थ यह विवाहवत का अनु- रचनाएँ प्रायः समाहित हो गयी है । यह ग्रन्थ ग्यारह भागों ष्ठान होता है।
में विभाजित है। इसी का प्रथम भाग है 'तेवाराम' । तुष्टिप्राप्तिव्रत-श्रावण कृष्ण तृतीया (श्रवण नक्षत्र युक्त) तैत्तिरीय-कृष्ण यजुर्वेद की एक शाखा । इसका वर्णन
को भगवान् गोविन्द का उन मन्त्रों से पूजन होता है, सूत्र काल तक नहीं पाया जाता। इस शाखा का प्रतिजिनका आरम्भ 'ओम्' से तथा अन्त 'नमः' से होता है। निधित्व एक संहिता, एक ब्राह्मण, एक आरण्यक और इसके आचरण से परम सन्तोष की उपलब्धि होती है। एक उपनिषद् द्वारा होता है। उपनिषद् आरण्यक का ही तुला-तुला का उल्लेख वाजसनेयी संहिता (३०.१७) में एक अंश है। हआ है। शतपथ ब्राह्मण (११.२,७,३३) में मनुष्य के तैत्तिरीय आरण्यक-तैत्तिरीय ब्राह्मण का शेषांश 'तैत्तिरीय अच्छे एवं बुरे कर्मों को इस लोक तथा परलोक में तौले आरण्यक' है। इसमें दस काण्ड हैं । काठक में बतायी हुई जाने के सिलसिले में इसका उल्लेख है । परवर्ती तुला- आरणीय विधि का भी इस ग्रन्थ में विचार हुआ है। परीक्षा से इस तुला में भिन्नता है, जिसमें मनुष्य दो बार इसके पहले और तीसरे प्रपाठक में यज्ञाग्नि प्रस्थापना के
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