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लोग अश्रद्धालु, पापात्मा, नास्तिक, संशयात्मा और केवल तर्क में ही डूबे रहते है ये पाँच प्रकार के मनुष्य तीर्थ के फल को नहीं प्राप्त करते । तीर्थयात्रा - उद्देश्य भगवत्प्राप्ति के लिए
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भक्ति, निज तुच्छता, दीनता, ईश्वरविश्वास एवं
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तीर्थयात्रा की जाती है। तीर्थों में साधु सन्त मिलते हैं, भगवान् का ज्ञान काम-लोभवर्जित साधुसंग से होता है। ऐसे सज्जन जो उपदेश देते हैं उससे संसार का बन्धन छूट जाता है। तीर्थों में इनका दर्शन मनुष्यों की पापराशि को जला डालने के लिए अग्नि का काम करता है। जो संसारबन्धन से छूटना चाहते हैं उन्हें पवित्र जल वाले तीथों में, जहाँ साधु महात्मा लोग रहते हैं, अवश्य जाना चाहिए। दे० पद्मपुराण, पातालखण्ड १९.१०-१२, १४-१७ । तीर्थयात्राविधि-तीर्थयात्रा का निश्चय होने पर सबसे पहले पत्नी कुटुम्ब, घर आदि की आसक्ति त्याग देनी चाहिए। तब मन से भगवान् का स्मरण करते हुए तीर्थयात्रा आरम्भ करने के लिए घर से कोस भर दूर जाकर वहाँ पवित्र नदी, तालाब, कुएं आदि में स्नान करे व और भी करा ले। उसके बाद विना गांठ का दण्ड अथवा बाँस की मोटी पुष्ट लाठी, कमण्डलु और आसन लेकर पूरी सादगी के साथ तीर्थ का उपयोगी वेष धारण कर धन-मान-बड़ाई, सरकार, पूजा आदि के लोभ का त्याग कर प्रस्थान आरम्भ कर दे। इस रीति से तीर्थयात्रा करने वाले को विशेष फल की प्राप्ति होती है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण भक्तवत्सल गोपते । शरण्य भगवन् विष्णो मां पाहि बहुसंसृतेः ॥
इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए तथा मन से भगवान् का स्मरण करते हुए पैदल ही तीर्थयात्रा करनी चाहिए | तभी विशेष फल प्राप्त होता है । तीर्थशिष्यपरम्परा - तीर्थ शिष्यपरम्परा शारदामठ के अन्त- तुमिअ औपोदिति - तैत्तिरीय संहिता (१.६,२,१) में तुमिञ्ज गंत है। विशेष विवरण के लिए दे० 'तीर्थ' । औपोदिति को एक सत्र का होता पुरोहित कहा गया है। तीव्रव्रत - पैरों को तोड़कर ( बाँधकर ) काशी में ही तथा उन्हें सुधा के साथ शास्त्रार्यरत भी वर्णित किया रहना, जिससे मनुष्य बाहर कहीं जा न सके तीव्र व्रत गया है । कहलाता है। अपनी कठोरता के कारण इसका यह नाम है । दे० हेमाद्रि, २.९१६ । तुकाराम तुकाराम (१६०८-४९ ई०) एक छोटे दुकानदार और बिठोवा के परम भक्त थे । उनके व्यक्तिगत धार्मिक जीवन पर उनके रचे गीतों (अभंगों ) की पंक्तियाँ पूर्णरूपेण प्रकाश डालती हैं । उनमें तुकाराम की ईश्वर
तुरगसप्तमी - चैत्र शुक्ल सप्तमी को तुरगसप्तमी कहते हैं । इस तिथि को उपवास करना चाहिए तथा सूर्य, अरुण, निकुम्भ, यम, यमुना, शनि तथा सूर्य की पत्नी छाया, सात छन्द, धाता, अर्थमा तथा दूसरे देवगण की पूजा करनी चाहिए । व्रत के अन्त में तुरंग ( घोड़े ) के दान का विधान है ।
तीर्थयात्रा उद्देश्य तुरगसमी
अयोग्यता का ज्ञान, असीम सहायतार्थं ईश्वर से प्रार्थना
एवं आवेदन कूट-कूट कर भरे हैं । उन्हें बिठोवा के सर्वव्यापी एवं आध्यात्मिक रूप का विश्वास था, फिर भी वे अदृश्य ईश्वर का एकीकरण मूर्ति से करते थे।
उनके पद्य ( अभंग ) बहुत ही उच्चकोटि के हैं । महाराष्ट्र में सम्भवतः उनका सर्वाधिक धार्मिक प्रभाव है। उनके गीतों में कोई भी दार्शनिक एवं गूद धार्मिक नियम नहीं है । वे एकेश्वरवादी थे । महाराष्ट्र केसरी शिवाजी ने उन्हें अपनी राजसभा में आमन्त्रित किया था, किन्तु तुकाराम ने केवल कुछ छन्द लिखकर भेजते हुए त्याग का आदर्श स्थापित कर दिया। उनके भजनों को अभंग कहते हैं। इनका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है।
प्र - ऋग्वेद (१.११६, ३,११७,१४,६.६२६ ) में तुग्र को भुज्यु का पिता कहा गया है और भुज्यु को अश्विनों का संरक्षित तुझ को ही 'तुग्रच' वा तौग्रच कहते हैं। ऋग्वेद के एक अन्य सूक्त में (६.२०,८,२६,४.१०.४९, ४) दूसरे 'तुम' का उल्लेख इन्द्र के शत्रु के रूप में किया गया है।
तुङ्गनाथ - हिमालय के केदार क्षेत्र में स्थित एक तीर्थस्थान तुङ्गनाथ पंचकेदारों में से तृतीय केदार हैं। इस मन्दिर में शिवलिङ्ग तथा कई और मूर्तियां है। यहाँ पातालगङ्गा नामक अत्यन्त शीतल जल की धारा है । तुङ्गनाशिखर से पूर्व की ओर नन्दा देवी पञ्चचूली तथा द्रोणाचल शिखर दीख पड़ते हैं। दक्षिण में पीड़ी, चन्द्रवदनी पर्वत तथा सुरखण्डा देवी के शिखर दिखाई देते हैं |
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