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तैत्तिरीयोपनिषद्-तोण्डरतियन्तावि
नियम लिखे हैं । दूसरे प्रपाठक में अध्ययन के नियम हैं । चौथे, पांचवें और छठे में दर्शपूर्णमासादि और पितृमेधादि विषयों का विचार है । सायण, भास्कर और वरदराज ने तैत्तिरीय आरण्यक के भाष्य लिखे हैं । इसके सातवें, आठवें और नवें प्रपाठक ब्रह्मविद्या सम्बन्धी होने से उपनिषद् कहलाते हैं । दसवाँ प्रपाठक 'याज्ञिकी अथवा 'नारायणीयोपनिषद्' के नाम से विख्यात है। तैत्तिरीयोपनिषद् तैत्तिरीय आरण्यक के सातवें, आठवें और नवें प्रपाठक ब्रह्मविद्याविषयक होने से उपनिषद् कहलाते हैं । इन्हीं का संयुक्त नाम तैत्तिरीयोपनिषद् है । इसके बहुत से भाष्य एवं वृत्तियाँ हैं। इनमें शङ्कराचार्य का भाष्य प्रधान है। सायणाचार्य, रङ्गरामानुज और आनन्दतीर्थ ने भी इस उपनिषद् के भाष्य लिखे हैं ।
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तैत्तिरीयोपनिषद् के तीन भाग हैं, प्रथम भाग संहितोपनिषद् अथवा शिक्षावल्ली है। इसमें व्याकरण सम्बन्धी कुछ आलोचना के बाद अद्वैतवाद की श्रुति आदि का विचार है । दूसरे भाग को आनन्दवल्ली कहते हैं और तीसरे को भृगुवल्ली। इन तीनों वल्लियों का इकट्ठा नाम 'वारुणी उपनिषद्' है। उस उपनिषद् में औपनिषद ब्रह्मविद्या की पराकाष्ठा दिखायी गयी है ।
तैत्तिरीयोपनिषद्दीपिका- माधवाचार्य ( चौदहवीं शताब्दी) द्वारा रचित 'तैत्तिरीयोपनिषद्दीपिका' तैत्तिरीयोपनिषद् की शाङ्करभाष्यानुसारणी टीका है ।
तैत्तिरीय प्रातिशाख्य - यह यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा का है। इसमें आत्रेय, स्वविर, कौडिन्य, भरद्वाज, वाल्मीकि, आग्निवेश्य, आग्निवेश्यायन, पौष्करसद आदि आचार्यों की चर्चा है । परन्तु इसमें किसी प्रसंग में भी तैत्तिरीय आरण्यक अथवा तैत्तिरीय ब्राह्मण की चर्चा नहीं है । आत्रेय, मारिषेय और वररुचि के लिखे इस पर भाष्य थे, परन्तु वे अब नहीं मिलते। इन पुराने भाष्यों को देखकर कात्तिकेय ने 'त्रिभाष्य' नाम का एक विस्तृत भाष्य इस पर लिखा है।
तैत्तिरीय ब्राह्मण - यह आपस्तम्ब एवं आत्रेय शाखा का ब्राह्मण है। इस पर सायणाचार्य एवं भास्कर मिश्र का भाष्य है । भाष्य की भूमिका में संहिता और ब्राह्मण की पृथक्ता पर विचार किया गया है। ब्राह्मण ग्रन्थ में स्पष्ट
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रूप से मन्त्र का उद्देश्य और व्याख्या रहती है। इस ब्राह्मण का शेषांश तैत्तिरीय आरण्यक
तैत्तिरीय श्रुतिवार्तिकतैत्तिरीय श्रुतिवार्तिक— सुरेश्वराचार्य ( मण्डन मिश्र ) ने संन्यास लेने के बाद अनेक वेदान्त विषयक ग्रन्थ लिखे थे, तैत्तिरीय श्रुतिवार्तिक उनमें से एक है ।
तैत्तिरीय संहिता - वैशम्पायन प्रयतित 'तत्तिरीय संहिता' की २७ शाखाएँ हैं । महीधर ने इसके भाष्य में लिखा है कि वैशम्पायन ने याज्ञवल्क्य आदि शिष्यों को वेदाध्ययन कराया । तदनन्तर किसी कारण से क्रुद्ध होकर गुरु याज्ञवल्क्य से बोले कि जो कुछ वेदाध्ययन तुमने किया है उसे वापस करो । याज्ञवल्क्य ने विद्या को मूमिमती करके वमन कर दिया। उस समय वैशम्पायन के दूसरे शिष्य उपस्थित थे। वैशम्पायन ने उन्हें आज्ञा दी कि इन वान्त यजुओं को ग्रहण कर लो। उन्होंने तीतर बनकर मन्त्रब्राह्मण दोनों को मिश्रित रूप में एक साथ ही चुग लिया, इसीलिए उसका तैत्तिरीय संहिता' नाम पड़ा। बुद्धि की मलिनता के कारण यजनों का रंग मन्त्र ब्राह्मण रूप में अलग न हो सकने से काला हो गया, इसी से 'कृष्ण यजुर्वेद' नाम चल पड़ा। इसमें मन्त्रों के संग-संग क्रियाप्रणाली (ब्राह्मण ) भी बतायी गयी है और जिस उद्देश्य से मन्त्रों का व्यवहार होता है वह भी बताया गया है। पूरी संहिता ब्राह्मण भाग के ढंग पर चलती है । इस शाखा के अन्य उपलब्ध ब्राह्मण परिशिष्ट रूप के हैं ।
त्रोटकाचार्य शङ्कराचार्य के चार प्रमुख शिष्यों में से एक त्रोटकाचार्य थे। शङ्कराचार्य द्वारा स्थापित बदरिकाश्रमस्थित ज्योतिर्मठ के ये मठाधीश बनाये गये थे। त्रोटक के तीन शिष्य थे - सरस्वती, भारती और पुरी । पुरी, भारती और सरस्वती की शिष्यपरम्परा शृंगेरी मठ में है। त्रोटक के तीनों शिष्य दसनामी संन्यासियों में से हैं । तोडलतन्त्र - 'आगमतत्त्व विलास' में उल्लिखित ६४ तन्त्रों में से ४० वें क्रम में 'तोडल तय' है।
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तोण्ड सिद्ध श्वर- वीरशैव मतावलम्बी एक आचार्य (१५वीं शताब्दी) । इन्होंने 'वीर दीपिका' नामक ग्रन्थ की
रचना की है। तोण्डर तिरुवन्तादि तमिल शैवकवि नम्बि की कविताओं में से एक 'तोण्डर तिरुवन्तादि' है।
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