________________
३०४
त्यागिनीतन्त्र-त्रिचिनापल्लो एवं श्रीरङ्गम्
त्यागिनीतन्त्र-इसमें कोच राजवंश के प्रतिष्ठाता विशुसिंह 'त्रागा' की कहानी पश्चिमी भारत में विशेष कर सुनी
का परिचय दिया गया है। इसके कारण इसे विक्रम की गयी है । बागा आत्महत्या या आत्मघात को कहते हैं सोलहवीं शती के बाद का माना जाता है।
जिसे इस जाति वाले (भाट या चारण) किसी कोश की त्रयीविद्या-(१) पुराकाल में वेदों का वर्गोकरण चार रक्षा या अन्य महत्त्वपूर्ण कार्यरत रहते समय, आक्रमण संहिताओं में न होकर ऋक्, साम और यजुष रचनाशैली किये जाने पर किया करते थे। काठियावाड़ के सभी के अन्तर्गत था, जिसमें समन वैदिक सामग्री आ जाती भागों में गाँवों के बाहर ‘पालियाँ' दृष्टिगोचर होती हैं । है । अतः त्रयी से सम्पूर्ण वैदिक साहित्य का बोध हो ये रक्षक पत्थर हैं जो उपर्युक्त जाति के उन पुरुष एवं जाता है।
स्त्रियों के सम्मान में स्थापित हैं जिन्होंने पशुओं आदि के (२) वेदों के अनुसरणकर्ता धर्मशास्त्र और अन्य
रक्षार्थ 'त्रागा' किया था। उन व्यक्तियों एवं घटनाओं सामाजिक शास्त्रों के लिए भी इसका प्रयोग होता है। का विवरण भी इन पत्थरों पर अभिलिखित है। कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' में त्रयी की गणना चार प्रमुख त्रिक-काश्मीर शव दर्शन प्रणाली को 'त्रिक' कहते हैं, विद्याओं में की गयी है : “आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता क्योंकि इसमें तीन ही मुख्य सिद्धान्तों-शिव, शक्ति दण्डनीतिश्चेति विद्याः।" उसमें आगे कहा गया है : एवं अणु अथवा पति, पाश एवं पशु का चिन्तन प्राप्त "एष त्रयीधर्मश्चतुर्णा वर्णानामाश्रमाणां च स्वधर्मस्थापना- होता है । माधवाचार्य के 'सर्वदर्शनसंग्रह' तथा चटर्जी के दोपकारिकः ।" (१.३.४)
'काश्मीर शैववाद' में विस्तार से इसका वर्णन यह त्रयीधर्म चारों वर्णों तथा आश्रमों के स्वधर्म
मिलता है। स्थापन में उपकारी होता है।]
त्रिकद्र क-यह शब्द बहुवचन में ही केवल प्रयुक्त हुआ है 'व्यवस्थितार्यमर्यादः कृतवर्णाश्रमस्थितिः ।
तथा सोमरस रखने के किसी प्रकार के तीन पात्रों का त्रय्या हि रक्षितो लोकः प्रसीदति न सीदति ॥
वाचक है।
त्रिखर्व-पञ्चविंश ब्राह्मण (२.८.३) में उद्धृत पुरोहितों की [ आर्य मर्यादा की व्यवस्था से युक्त, वर्णाश्रम धर्मसम्पन्न और त्रयी के द्वारा सुरक्षित प्रजा विशेष प्रकार से
एक शाखा का नाम, जिन्होंने एक विशेष यज्ञ सफलता
पूर्वक किया था । सुखी रहती है और कभी कष्ट नहीं पाती है। ] त्रयोदशपदार्थवर्जनसप्तमी-उत्तरायण की समाप्ति के
त्रिगतिसप्तमी-यह व्रत फाल्गुन शुक्ल सप्तमी को आरम्भ पश्चात् रविवार के दिन शुक्ल पक्ष में स तमी को (पुरुष
होता है, एक वर्ष पर्यन्त चलता है । 'हेलि' नाम (वस्तुतः वाची नक्षत्रों, जैसै हस्त, पुष्य, मृगशिरा, पुनर्वसु, मूल,
यह ग्रीक शब्द 'हेलिओस' का भारतीय रूप है ) से सूर्य श्रवण के होने पर) इसका अनुष्ठान होता है। एक वर्ष तक
की पूजा होती है। फाल्गुन मास से ज्येष्ठ मास तक सूर्य
की 'हंस' नाम से, आषाढ़ से आश्विन तक 'मार्तण्ड' नाम यह व्रत चलता है। सूर्य का पूजन होता है। त्रयोदश पदार्थों, जैसे व्रीहि, यव, गेहूँ, तिल, माष, मूंग इत्यादि का
से, कार्तिक से माघ तक 'भास्कर' नाम से पूजा करने से निषेध है । केवल एक धान्य पर आश्रित रहना पड़ता है।
ऐहलौकिक तथा पारलौकिक प्रभुत्व प्राप्त होने के साथत्रयोदशीव्रत-किसी मास की त्रयोदशी के दिन इस व्रत
साथ इन्द्रलोक का आनन्द और सूर्यलोक में वास मिलता का अनुष्ठान होता है । व्रती को कैथ फल के बराबर गौ
है। इन तीन गतियों के कारण इसे त्रिगतिसप्तमी कहते के मक्खन को किसी सुवर्ण, रजत, ताम्र अथवा मिट्टी के
हैं। दे० हेमाद्रि, १.७३६-७३८; कृत्यरत्नाकर, ५२४पात्र में रखकर किसी को दान में देना चाहिए।
५२६, श्लोक है : 'जपन् हेलीति देवस्य नाम भक्त्या त्रागा-भाटों तथा चारणों की एक जाति । एक आश्चर्यजनक बात भाट एवं चारण जातियों के विषय में यह है त्रिचिनापल्ली एवं श्रीरङ्गम-सूदर दक्षिण का तीर्थस्थान । कि वे अवध्य समझे गये हैं। इस विश्वास के पीछे उनके कावेरी इन नगरों को दो भागों में बाँटती है। त्रिचिस्वभावतः दूत एवं कीर्तिगायक होने का गुण है। नापल्ली को प्रायः लोग “त्रिची" कहते हैं। इसका शुद्ध
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org