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तिलवाहोवत-तीर्थफल का पात्र
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ढुण्डिराज (गणेश) की तिल के लड्डुओं से पूजा होती है। पवित्र नदी, सरोवर आदि से होता है। इसका शाब्दिक तिलवाही व्रत-पौष कृष्ण एकादशी को इस व्रत का अनु- अर्थ है 'नदी पार करने का स्थान ( घाट )।' विश्वास ष्ठान होता है। इसके विष्णु देवता हैं । उस दिन उपवास किया जाता है कि तीर्थ भवसागर पार करने का घाट किया जाता है, गौ के सूखे हुए उपले तथा पुष्य नक्षत्र में है। अतः वहाँ जाकर यात्री को स्नान, दान-पुण्यादि इकट्ठे किये हुए तिलों से होम होता है। इस व्रत से ___करना तथा साधु-सन्तों का सत्संग प्राप्त करना चाहिए । सौन्दर्य की अभिवृद्धि तथा मनोवाञ्छाएं पूरी होती हैं । ___ मुख्य तीर्थों में सात पुरियाँ, चार धाम और भारत के तिलद्वादशी-माघ कृष्ण द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान असंख्य पवित्र स्थान हैं, जिनमें से कुछ का यथास्थान करना चाहिए। इसके कृष्ण देवता हैं जिनकी विधिवत् ___वर्णन हुआ है । सात पुरियाँ निम्नाङ्कित हैं : पूजा इस व्रत में होनी चाहिए।
अयोध्या मधुरा माया काशी काञ्ची अवन्तिका । तिलद्वादशीव्रत-माघ मास, कृष्ण पक्ष की द्वादशी तिथि पुरी द्वारवती चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः ॥
को यदि पूर्वाषाढ़ या मूल नक्षत्र हो तो उस दिन यह चार धाम हैं-द्वारका, जगन्नाथपुरी, बदरिकाश्रम और व्रत किया जाता है। इसमें तिल से स्नान, हवन, तिल रामेश्वरम् । का ही मिष्टान्न सहित नैवेद्य, तिलतल युक्त दीप, तिल (२) शङ्कराचार्य की शिष्यपरम्परा में उनके चार युक्त जल का प्रयोग करते हैं तथा तिल का दान ब्राह्मणों प्रधान शिष्यों में से प्रथम पद्मपाद के तीर्थ एवं आश्रम को देते हुए वासुदेव की स्तुति ऋ० वे० ( १.२२,२०) नामक दो शिष्य थे । ये शारदामठ के अन्तर्गत है । शङ्कर
अथवा पुरुषसूक्त ( ऋ० १०.९० ) द्वारा करते हैं। के ऐसे दस प्रशिष्य उनके चार मुख्य शिष्यों के शिष्य थे तिल्वक-शतपथ ब्राह्मण ( १३.८.१,१६ ) में इसे एक तथा इनमें से प्रत्येक की शिष्यपरम्परा प्रचलित हुई वृक्ष बताया गया है तथा इसके समीप समाधि बनाना जो दसनामी संन्यासी वर्ग की प्रणाली है। आचार्य मध्व अपवित्र कार्य कहा गया है। इससे ही 'तैल्वक' विशेषण __तथा उनके अनेक अनुयायी भी तीर्थ परम्परा के अन्तर्गत बना है, जिसका अर्थ है तिल्वक की लकड़ी का बना माने जाते हैं। हुआ, और जिससे मैत्रायणीसंहिता में यूप तथा यज्ञयष्टि (३) वीर शवों में जब बालक का जन्म होता है तो का बोध षड्विंश ब्राह्मण के अनुसार होता है।
पिता अपने गुरु को आमंत्रित करता है तथा अष्टवर्ग तिष्य-ऋग्वेद (५.५४,१३,१०.६४,८) में यह एक नामक संस्कार होता है। ये आठ वर्ग हैं-गुरु, लिंग, नक्षत्र का नाम है, यद्यपि सायण इसका अर्थ सूर्य लगाते विभूति, रुद्राक्ष, मन्त्र, जङ्गम, तीर्थ एवं प्रसाद । ये पाप हैं। निस्सन्देह यह 'अवेस्ता' के तिस्त्र्य का समानार्थक से सुरक्षा प्रदान करते हैं। है। परवर्ती ग्रन्थों में इसे चन्द्रस्थानों में से एक कहा (४) गुरु को भी तीर्थ कहते हैं, भगवान् का चरणोदक गया है।
भी तीर्थ कहलाता है। परवर्ती साहित्य में तिष्य से एक नक्षत्र का बोध तीर्थफल का पात्र-जिसके हाथ, पैर और मन भली भाँति होता है जो पुष्य कहलाता है। इस नक्षत्र में उपवास संयमित हैं, जो प्रतिग्रह नहीं लेता, जो अनुकूल अथवा एवं दान-पुण्य करना महत्त्वपूर्ण माना जाता है ।
प्रतिकूल जो कुछ भी मिल जाय उसी में संतुष्ट रहता तिष्यव्रत-शुक्ल पक्ष में तिष्य (पुष्य ) नक्षत्र को इस है तथा जिसमें अहंकार का सर्वथा अभाव रहता है वह तीर्थ व्रत का आरम्भ होता है। इसका अनुष्ठान एक वर्ष तक का फल प्राप्त करता है। जो पाखण्ड नहीं करता, नये चलता है। प्रतिमास पुष्य नक्षत्र में यह दुहराया जाता कामों को आरम्भ नहीं करता, थोड़ा आहार करता है, है। केवल प्रथम पुष्य नक्षत्र के दिन उपवास करने का इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर चुका है, सब प्रकार की विधान है। इसमें वैश्रवण ( कुबेर ) की पूजा होती आसक्तियों से रहित है, जिसमें क्रोध नहीं है, जिसकी है । पुष्टि तथा समृद्धि के लिए इसका अनुष्ठान होता है। बुद्धि निर्मल है, जो सत्य बोलता है, व्रत पालन में दृढ़ तीर्थ-(१) तीर्थ का सामान्य अर्थ 'पवित्र स्थान' है, है और सब प्राणियों को अपने आत्मा के समान अनुभव जिसका सम्बन्ध किसी देवता, महापुरुष, महान् घटना, करता है, वह तीर्थ के फल को प्राप्त करता है। जो
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