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तापस-तार्य
तापस - पञ्चविंश ब्राह्मण ( २५.१५ ) में वर्णित सर्पयज्ञ में दत्त होता पुरोहित था । दत्त का ही नाम तापस है । तामिल वैष्णव-तामिल वैष्णवों को आलवार भी कहते हैं। विशेष विवरण के लिए दे० 'आलवार' | तामिल छठी से नवीं शताब्दी वि० के मध्य तमिल शैवदेश में उल्लेखनीय शैव भक्तों का जन्म हुआ, जो कवि भी थे। उनमें से तीन वैष्णव आलवारों के सदृश ही सुप्रसिद्ध हैं । अन्य धार्मिक नेताओं के समान वे 'नयनार' कहलाते थे। उनके नाम थे नान सम्बन्धर, अप्पर एवं सुन्दरमूर्ति । प्रथम दो सातवीं शती में तथा तृतीय नवीं शती में प्रकट हुए थे। आवारों के समान वे भी गायक कवि थे, जिनमें शिव के प्रति अगाध भक्ति भरी बी एक मन्दिर से दूसरे तक ये भ्रमण करते रहते थे तथा शिव की मूर्ति के सामने भावावेश में नाचते हुए स्वरचित भजनों को गाया करते थे। उनके पीछे दर्शकों एवं भक्तों की भीड़ लगी रहती थी । वे आगमों पर आश्रित नहीं थे, किन्तु रामायण-महाभारत तथा पुराणों का अनुसरण करते थे । उनके कुछ ही पद दूसरी भाषाओं में अनूदित हैं ।
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तिसमूलर ( ८०० ई० ) इस सम्प्रदाय के सबसे पहले कवि हैं जिन्होंने अपने काव्य 'तिरुमन्त्रम्' में आगमों के धार्मिक नियमों का अनुसरण किया है। 'माणिक्कवाचकर' इस मत के दूसरे महापुरुष हैं, जिनके अगणित पदों का संकलन 'तिवाचकम्' के नाम में प्रसिद्ध है, जिसका अर्थ होता है 'पवित्र वचनावली' । ये मदुरा के निवासी एवं प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। गुरु के प्रभाव से अपना पद त्यागकर ये साधु बन गये । इन्होंने पुराणों, आगमों एवं पूर्ववर्ती तमिल रचनाओं का अनुसरण बहुत किया है । ये शङ्कर स्वामी के मायावाद के विरोधी थे ।
इसके द्वितीय विकासक्रम में ( १०००-१३५० ई० ) पट्टिपात्तु पिल्लई, नाम्बि अन्दर नाम्बि, मेयकण्ड देव, अरुलनन्दी, मरइ ज्ञानसम्बन्ध एवं उमापति का उद्भव हुआ । मेकण्ड आदि अन्तिम चार सन्त आचार्य कहलाते हैं, क्योंकि ये क्रमशः एक दूसरे के शिष्य थे । इस प्रकार तामिल शैवों ने अपना अलग उपासनाविधान निर्माण किया, जिसे तामिल शैवसिद्धान्त कहते हैं । इनके सिद्धान्तग्रन्थ कुल १४ हैं ।
तीसरे विकासक्रम के अन्तर्गत उक्त सिद्धान्तों में कोई परिवर्तन न हुआ। यह सम्प्रदाय पूर्ण रूपेण व्यवस्थित
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कभी न था । अधूरी साम्प्रदायिक व्यवस्था साहित्य के माध्यम से मठों के आसपास चलती रहती थी। महन्त लोग घूम घूमकर शिष्यों से संपर्क रखते थे। अधिकांश मठ अब्राह्मणों के हाथ में तथा कुछ ही ब्राह्मणों के अधीन थे । कारण यह कि तमिल देश के अधिकांश ब्राह्मण स्मार्त अथवा वैष्णव मतावलम्बी थे । इस काल के सर्वश्रेष्ठ विद्वान् लेखक शिवज्ञान योगी हुए (१७८५ ई०) इसी शताब्दी के तायुमानवर द्वारा रचित शैव गीतों का संग्रह सबसे बड़ा शैव ग्रन्थ माना जाता है। इसका दार्शनिक दृष्टिकोण शिवाद्वैत के नाम से विख्यात है, जो संस्कृत सिद्धान्तशाखा से भिन्न है।
तामिल शैव सिद्धान्त - दे० 'तामिल शैव' ।
ताम्बूलसंक्रान्तिताम्बूलसंक्रान्ति– केवल महिलाओं के लिए इस व्रत का विधान है। एक वर्ष तक व्रती को प्रति दिन ब्राह्मणों को ताम्बूल खाने को देना चाहिए। वर्ष के अन्त में सुवर्णकमल तथा समस्त रसोई के पात्र ताम्बूल के साथ किसी ब्राह्मण दम्पति को दान करने और सुस्वादु भोजन खिलाने से अखण्ड सौभाग्य की प्राप्ति होती है एवं जीवन भर पति तथा पुत्रों के साथ व्रती सुखपूर्वक समय व्यतीत करती है। तायुमानवर - एक शिवभक्त गीतकार, जिन्होंने अठारहवीं शती में तामिल शैव गीतों का सबसे बड़ा ग्रन्थ प्रस्तुत किया। तारकद्वादशी - मार्गशीर्ष शुक्ल द्वादशी को यह व्रत प्रारम्भ होता है । एक वर्ष पर्यन्त चलता है। सूर्य तथा तारागण इसके देवता है। इस व्रत में प्रत्येक मास ब्राह्मणों को भिन्न भिन्न प्रकार का भोजन कराना चाहिए तारों को रात्रि में अर्घ्य दिया जाता है । यह व्रत समस्त पापों का नाश करता है । इस विषय में एक राजा का आख्यान आता है। कि उसने तपस्यारत एक तपस्वी को मृग समझकर मार डाला था, जिसके परिणामस्वरूप उसे बारह जन्मों में भिन्न-भिन्न पशु रूपों में जन्म लेना पड़ा। इस प्रकार के पाप भी इस व्रत के अनुष्ठान से नष्ट हो जाते हैं। तारसारोपनिषद् - यह एक परवर्ती उपनिषद् है । तारिणीतन्त्र - ' आगमतत्त्वविलास' में उद्धृत ६४ तन्त्रों की तालिका में तारिणीतन्त्र का क्रमा नवाँ है । तार्क्ष्य- - ऋग्वेद (१.८,९,१०.१७८ ) में इसका अर्थ देवी घोड़ा होता है । निश्चय ही यहाँ सूर्य को अश्व
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