________________
तपश्चरणव्रत-तरनतारन
२९५
पाने के ध्येय से किया गया दाम्भिक तप राजसिक होता तपोनित्य पौरुशिष्टि---तपोनित्य (तपस्या में नित्य स्थिर ) है। इसका परिणाम अस्थायी और अध्रुव होता है। पौरुशिष्टि ( पुरुशिष्ट के वंशज) का उल्लेख तैत्तिरीय अविचारित हठ द्वारा अपनी भावनाओं को दबाकर, अपने उपनिषद् में एक आचार्य के रूप में हुआ है, जो तपस् के को कष्ट देकर या दूसरे किसी व्यक्ति की हानि या नाश महत्त्व में विश्वास करते थे। करने की इच्छा से जो तप किया जाता है उसे तामसिक तपोवन-हिमालय में स्थित एक तीर्थस्थल । जोशीमठ से तप कहते हैं। इस विवरण को देखते हुए मनुष्य के लिए . छः मील दूर नीति घाटी होकर कैलास जाने वाले मार्ग यह उचित है कि वह शारीरिक, वाचनिक और मानसिक में तपोवन है। यहाँ गर्म जल का कुण्ड है । बड़ा रमत्रिविध तपों में से सबके सात्त्विक रूपों का ही अनुसरण
णीक स्थान है। इसमें स्नान करना पुण्यदायक माना करके परम सुख और शान्ति का लाभ करे।
जाता है। तपश्चरणव्रत-मार्गशीर्ष कृष्ण सप्तमी को यह व्रत प्रारम्भ
तपोवत-माघ मास की सप्तमी को यह व्रत प्रारम्भ होता होता है। एक वर्ष पर्यन्त यह चलना चाहिए। इसके
है। व्रती को रात्रि में एक छोटा सा वस्त्र धारण करना सूर्य देवता हैं।
चाहिए । तदनन्तर एक गोदान करना चाहिए। तपस-श्रम करना, कष्ट सहते हुए ताप ( गर्मी) उत्पन्न
तप्तमद्राधारण-आश्विन शुक्ल और कार्तिक शुक्ल एकाकरना। सामान्यतः तपस् का अर्थ आत्मशोधन एवं
दशी को शरीर पर रामानुज, माध्व तथा दूसरे वैष्णव तपस्या है। सर्वप्रथम इसका व्यवहार आरण्यकों में पाया जाता है। आरण्यक वनों में पढ़े जाते थे। उन्हें पढ़ने
सम्प्रदायों के द्वारा अग्नितप्त ताम्र अथवा ऐसी ही किसी वाला साधकों का दल था जो जंगल में निवास करता
अन्य धातु से शंख तथा चक्र अंकित कराये ( दागे ) जाते था। वे सभी सांसारिक व्यापारों का परित्याग कर
हैं। शंख तथा चक्र विष्णु के आयुध हैं । स्मृतिकौस्तुभ धार्मिक जीवन व्यतीत करते थे। उनके अभ्यासों में तीन
(पृ० ८६-८७ ) के अनुसार उपर्युक्त क्रिया में किसी
धार्मिक ग्रन्थ का प्रमाण प्राप्त नहीं है। किन्तु निर्णयबातें मुख्य थीं-तपस्, यज्ञ एवं ध्यान । तपस् तीन प्रकार का होता है-मानसिक, वाचिक तथा शारीरिक ।
सिन्धु, १-७, १०८ तथा धर्मसिन्धु, ५५ के अनुसार तपस्या-तप की स्थिति में रहने का भाव । दे० 'तप' और
मनुष्य को अपनी परम्परागत क्रियाओं का अनुष्ठान करना 'तपस्' । तन्त्रमत के अनुसार तप, तपस्या नहीं है, ब्रह्मचर्य ही तपस्या है। जो ब्रह्मचर्य के प्रभाव से ऊर्ध्व- तमस-सांख्यमतानुसार प्रकृति तथा उससे उत्पन्न सभी रेता होते हैं, वे ही तपस्वी हैं । ।
तत्त्वों के तीन उपादान है-सत्त्व (प्रकाश ); रजस् तप (व्रत)--यह शब्द कूछ धार्मिक कृत्यों, जैसे कृच्छ, चान्द्रा- (शक्ति ) तथा तमस् ( जडता)। तमस् अवरोध करनेयण, ब्रह्मचारियों तथा अन्यों के द्वारा स्वीकृत कठोर नियमों वाला उपादान है। उपर्युक्त तीनों गुण विभिन्न अनुपातों तथा आचरणों के लिए व्यवहृत होता है। आप० ध० सू० में मिलकर ( अधिक सत्त्व गुण का कम रज एवं तम से २.५.१ ( नियमेषु तपश्शब्दः ); मनु ११. २०३, २४४;
संयोग, अथवा कम सत्त्व गुण का अधिक रज एवं तम के वि० धर्म० ९५; वि० ध० त०, २६६ में तप की लम्बी
साथ संयोग ) विभिन्न गण वाले विभिन्न पदार्थ उत्पन्न प्रशंसा की गयी है। कृत्यरत्नाकर, १६ में तप की संयम करते हैं । दे० सांख्यकारिका । के रूप में परिभाषा की गयी है। ( शाब्दिक अर्थ है तरनतारन-अमृतसर से बारह मील दक्षिण ब्यास और उपवास, कठोर आचरणों, व्रतों के द्वारा शरीर को सतलज नदियों के संगम से पूर्वोत्तर यह सिक्खों का सन्तप्त करना । ) अनुशासनपर्व के अनुसार उपवास से पवित्र तीर्थ है । अमृतसर से तरनतारन तक पक्की सड़क अधिक अन्य कोई तप नहीं है।
जाती है। यहाँ भी एक सरोवर के मध्य गुरुद्वारा है । तपोज-तपस्या से उत्पन्न हुआ 'तपोज' कहलाता है । उन गुरु अर्जुनदेव ने इस स्थान की प्रतिष्ठा की थी। तरनसभी गुणों का इसमें समावेश है जिनका सम्बन्ध कलुष तारन सरोवर अत्यन्त पवित्र माना जाता है। वैशाख तथा पाप के विनाश से है ।
की अमावस्या को यहाँ मेला लगता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org