________________
२९४
तप
के रूप में दिखाया गया है । वे हैं 'तन्मात्रा' (सूक्ष्म तत्व) एवं 'महाभूत' (स्थूल तत्त्व) । शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध तन्मात्राएँ तथा आकाश, वायु, तेज, जल और। पृथ्वी महाभूत हैं । तप (१)-उपभोग्य विषयों का परित्याग करके शरीर और मन को दृढतापूर्वक सन्तुलन और समाधि की अवस्था में स्थिर रखना ही तप है। इससे उनकी शक्ति उद्दीप्त होती है । तप की विशुद्ध शक्ति द्वारा मनुष्य असाधारण कार्य करने में समर्थ होता है । उसमें अद्भुत तेज उत्पन्न होता है । शास्त्र की दृष्टि से तेज (सामर्थ्य) दो प्रकार का है : (१) ब्रह्मतेज और (२) शास्त्रतेज । पहला तप के द्वारा और दूसरा त्याग के द्वारा समृद्ध होता है।
साधन की दृष्टि से तप के तीन प्रकार है-शारीरिक, वाचिक और मानसिक । देव, ब्राह्मण, गुरु, ज्ञानी, सन्त और महात्मा की पूजा आदि शारीरिक तप में सम्मिलित है । वेद-शास्त्र का पाठ, सत्य, प्रिय और कल्याणकारी वाणी बोलना आदि वाचिक तप है। मन की प्रफुल्लता, अक्रूरता, मौन, वासनाओं का निग्रह आदि मानसिक तप के अन्तर्गत है । इन तीनों के भी अनेक भेद-उपभेद है।
इस तरह शारीरिक, वाचिक और मानसिक तप के द्वारा मनुष्य द्वन्द्वसहिष्णु हो जाता है। फलतः उसकी
से उपदेशक की बात का समाज पर अनुचित प्रभाव पड़ता है। इससे हानिकारक कर्मों की प्रतिक्रिया होती है। फलतः समाज का अहित होता है और उपदेशक का भी अधःपतन होता है। शास्त्रीय दृष्टि से जो वचन देश, काल और पात्र के अनुसार सर्वभूतहितकारी है वही सत्य और धर्म के अनुकूल है ।
वाचनिक तप का मूल तात्पर्य वाणी पर नियंत्रण है। अतः मनुष्य को कभी ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए जिससे दूसरों को कष्ट हो । वाचनिक तप के साथ शारीरिक तप का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है । शारीरिक तप के अभ्यास के बिना मनुष्य कोई कार्य करने में समर्थ नीं हो पाता। प्राचीन काल में शारीरिक तप जीवन के आरम्भिक काल में ब्रह्मचर्याश्रम के द्वारा द्वन्द्वसहिष्णु होकर किया जाता था । तप के द्वारा मनुष्य कष्टसहिष्णु और परिश्रमी होता था। पर आजकल यह बात नहीं है, इसी कारण मनुष्य शक्तिहीन, आलसी तथा काम से दूर भागने वाला हो गया है।
ब्रह्मचर्य द्वारा उच्चतर पद प्राप्त करनेवाले देवता की उपाधि से विभूषित किये जाते हैं। नैष्ठिक ब्रह्मचारी को निर्वाण का उत्तम पद प्राप्त होता है। पूर्ण ब्रह्मचारी असाधारण शक्तिमान होता है । शरीर की सप्त धातुओं में वीर्य सर्वप्रधान सारभूत तत्त्व है । ब्रह्मचर्य द्वारा इसकी रक्षा होती है जिससे मन और शरीर दोनों बलिष्ठ होते हैं ।
ब्रह्मचर्य की भाँति अहिंसा भी 'परम धर्म' माना गया है। यह वह परम तप है जिससे व्यक्ति प्राणिमात्र को अभयदान देता है । प्रकृति के नियम के अनुकूल चलना धर्म और उसके प्रतिकूल चलना अधर्म है। अतः प्रकृतिप्रवाह के अनुकूल चलने वाले को कष्ट देना अधर्म या पाप है । बिना वैर के हिंसा नहीं होती । अतः किसी की हिंसा नहीं करनी चाहिए और मनुष्य को अहिंसा रूपी शारीरिक तप के द्वारा अपने कल्याणार्थ इहलोक और परलोक का सुधार करना चाहिए ।
उपर्युक्त त्रिविध तपरूपों के भी सात्त्विक, राजसिक और तामसिक भेद के अनुसार तीन-तीन भेद हैं। बिना फल की इच्छा किये अनासक्त होकर श्रद्धासहित किया गया तप सात्त्विक होता है । सत्कार, सम्मान तथा पूजा
सर्वश्रेष्ठ है। इससे चित्त में एकाग्रता आती है जिससे ब्राह्मण को ब्रह्मज्ञान और संन्यासी को कैवल्य की प्राप्ति होती है । जब तक सांसारिक मायाप्रसूत राग-द्वेष से मानवमन उद्वेलित रहता है तब तक उसे वास्तविक आनन्द की उपलब्धि नहीं होती, क्योंकि इस स्थिति में चित्त एकाग्र नहीं हो सकता । सारांश यह है कि मानसिक तप चित्त की एकाग्रता और द्वन्द्वसहिष्णुता का साधन है। इससे चित्त शान्त होता है और मनुष्य प्रसन्नता को प्राप्त कर क्रमशः मुक्ति की ओर अग्रसर होता है।
वाचनिक तप व्यक्तिगत और जातिगत दोनों प्रकार के उत्थान में सहायक होता है। मानवता के सेवक परोपकारी व्यक्ति का एक-एक शब्द मूल्यवान् और नपातुला होना आवश्यक है । इसके अभाव में निरर्थक वक्तव्य देने वाले उपदेशक की बातों का कोई प्रभाव श्रोता पर नहीं पड़ता । वाचनिक तप की सीमा का अतिक्रमण करने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org