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तत्त्वमञ्जरी-तन्त्र
प्रौढ पण्डित हुए हैं। इनकी रची 'तत्त्वबोधिनी' सर्व- तत्त्वसंख्यान-मध्वाचार्य के ग्रन्थों में से एक ग्रन्थ 'तत्त्वज्ञात्ममुनिकृत 'संक्षेपशारीरक' की व्याख्या है ।
संख्यान' है। जयतीर्थाचार्य ने इसकी टीका लिखी है । तत्त्वमञ्जरी-सत्रहवीं शताब्दी में मध्व मतावलम्बी इसमें तत्त्वों की संख्या और व्याख्या दी गयी है। राघवेन्द्र स्वामी रचित यह एक ग्रन्थ है।
तत्त्वसार-वरदाचार्य अथवा नडाडुरम्मल ने 'तत्त्वसार' तत्त्वमसि-'तुम वह (ब्रह्म) हो' यह महावाक्य
एवं 'मारार्थचतुष्टय' नामक दो ग्रन्थ लिखे । 'तत्त्वसार' छान्दोग्य उपनिषद् में आया है । उद्दालक आरुणि ने
पद्य में है और उसमें उपनिषदों के उपदेश तथा दार्शनिक अपने पुत्र श्वेतकेतु को इसका उपदेश किया है । यह
मत का सारांश दिया गया है। सम्पूर्ण औपनिषदिक ज्ञान का सार है। इसका तात्पर्य तत्त्वानुसन्धान-महादेव सरस्वती कृत 'तत्त्वानसन्धान' है व्यक्तिगत आत्मा का विश्वात्मा ( ब्रह्म) से अभेद ।
प्रकरणग्रन्थ है। इसके ऊपर उन्होंने 'अद्वैतचिन्तातत्त्वमार्तण्ड-अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में तृतीय
कौस्तुभ' नाम की टीका भी लिखी है । 'तत्त्वानुसन्धान' श्रीनिवास द्वारा रचित 'तत्त्वमार्तण्ड' विशिष्टाद्वैत मत
बहुत सरल भाषा में लिखा गया है। इससे सहज में ही का समर्थन एवं अन्य मतों का खण्डन करता है।
तसिद्धान्त का ज्ञान हो सकता है । रचनाकाल अठार
हवीं शताब्दी है। तत्त्वमुक्ताकलाप-वेङ्कटनाथ वेदान्ताचार्य लिखित यह
तत्त्वालोक-तेरहवीं शती वि० के उत्तरार्ध में जयदेव ग्रन्थ तमिल भाषा में है। इसकी रचना विक्रम की चौद
मिश्र ने 'तत्त्वालोक' नामक भाष्य गङ्गेश उपाध्याय रचित हवीं या पन्द्रहवीं शती में हुई।
'तत्त्वचिन्तामणि' पर लिखा है। तत्त्वबिन्दु-वाचस्पति मिश्र ने भट्टमत पर 'तत्त्वबिन्दु'
तत्त्वालोकरहस्य-सत्रहवीं शती वि० के प्रारम्भ में मथुनामक टीका लिखी है।।
रानाथ ने 'तत्त्वालोकरहस्य' नामक ग्रन्थ लिखा। इसे तत्त्वविवेक-इस नाम के दो ग्रन्थ हैं। प्रथम के रचयिता
माथुरी या मथुरानाथी भी कहते हैं। यह तत्त्वचिन्ताअद्वैत सम्प्रदाय के आचार्य नृसिंहाश्रम है। यह ग्रन्थ मणि की एक टीका है। प्रकाशित है । इसमें केवल दो परिच्छेद हैं। इसके ऊपर तत्त्व रयर-सित्तर ( चित्तर अथवा सिद्ध ) शवों की ही उन्होंने स्वयं ही 'तत्त्वविवेकदीपन' नाम की एक टीका तमिल शाखा है, जो मूर्तिपूजा की विरोधिनी है । १८वीं लिखी है । दूसरा ग्रन्थ मध्वाचार्य रचित है।
शती वि० में इस मत के 'तत्तुव रयर' नामक आचार्य तत्त्ववैशारदी-सं ९०७ वि० के लगभग योगसूत्र पर
ने मूर्तिपूजाविरोधी एक ग्रन्थ लिखा, जिसका नाम वाचस्पति मिश्र ने 'तत्त्ववैशारदी' नामक टीका लिखी ।
त मिथ न तत्त्ववशारदा नामक टाका लिखा । 'अदङ्गन मरई' हैं । दार्शनिक शैली में यह 'योगसूत्रभाष्य' से भी उत्तम ग्रन्थ ।
तत्त्वोद्योत-मध्वाचार्य लिखित एक ग्रन्थ, जिसकी टीका है। इसमें विषयों का क्रम एवं शब्दयोजना शृंखला- जयतीर्थाचा ने लिखी है। बद्ध है।
तन्त्र-तन्त्रशास्त्र शिवप्रणीत कहा जाता है। यह तीन तत्त्वशेखर-विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में वैष्णव भागों में विभक्त है : आगम, यामल एवं मुख्य तन्त्र ।
आचार्यों में प्रसिद्ध लोकाचार्य ने रामानुजीय सिद्धान्त वाराहीतन्त्र के अनुसार जिसमें सृष्टि, प्रलय, देवताओं की समझाने के लिए दो ग्रन्थों की रचना की-तत्त्वत्रय'
पूजा, सत्कर्यों के साधन, पुरश्चरण, षट्कर्मसाधन और एवं 'तत्त्वशेखर' । प्रथम में तत्त्वों का वर्गीकरण और
चार प्रकार के ध्यानयोग का वर्णन हो उसे आगम कहते व्याख्या तथा द्वितीय में उनके उच्चतर दार्शनिक पक्षों का है। जिसमें सृष्टितत्त्व, ज्योतिष, नित्य कृत्य, क्रम, सूत्र, विवेचन है।
वर्णभेद और युगधर्म का वर्णन हो उसे यामल कहते हैं । तत्त्वसमास-सांख्यदर्शन का संक्षिप्त सूत्रग्रन्थ । इसमें सांख्य- जिसमें सृष्टि, लय, मन्त्र निर्णय, तीर्थ, आश्रमधर्म, कल्प, सिद्धान्तों का निरूपण 'सांख्यकारिका' से भिन्न शैली में ज्योतिषसंस्थान, व्रतकथा, शौच-अशौच, स्त्रीपुरुषलक्षण, किया गया है । कहा जाता है कि कपिल मुनि की मुख्य राजधर्म, दानधर्म, युगधर्म, व्यवहार तथा आध्यात्मिक रचना यही है।
नियमों का वर्णन हो, वह मुख्य तन्त्र कहलाता है ।
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