________________
२८४
ज्ञान
वेद में जो कहा गया है कि ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिलती, वह ज्ञान की सर्वश्रेष्ठता का ही परिचायक है। ज्ञान तत्त्वज्ञानी गुरु की निःस्वार्थ सेवा तथा उसमें श्रद्धा रखने से प्राप्त होता है । तत्त्वज्ञानी गुरु अपने शिष्य की सेवा, जिज्ञासा तथा श्रद्धा से सन्तुष्ट होकर उसे ज्ञानोप- देश देते हैं । ज्ञान संसार में सर्वाधिक पवित्र वस्तु है। योगी को भी पूर्ण योगसिद्धि मिलने पर ही ज्ञान की प्राप्ति होती है।
ज्ञानमार्ग में प्रवेश करने का अधिकार साधनचतुष्टय से सम्पन्न व्यक्ति को दिया गया है। नित्यानित्यवस्तु- विवेक, इहामुत्र फलभोगविराग, शमदमादि षट्सम्पत्ति और मुमुक्षुत्व साधनचतुष्टय कहलाते हैं। प्रथम साधन में आत्मा की नित्यता और संसार की अनित्यता का विचार आता है । दूसरे के अन्तर्गत इहलोक और परलोक सुखभोग के प्रति विरक्ति का भाव निहित है। तीसरे में शम, दम, तितिक्षा, उपरति, श्रद्धा और समाधान-षट् साधन । सम्पत्तियों का संचय होता है । तत्त्वज्ञान को छोड़ अन्य विषयों के सेवन से विरक्ति होना शम है, इन्द्रियों का दमन दम है, भोगों से निवृत्ति उपरति, शीतोष्ण, सुखदुःख आदि को सहन करने की शक्ति तितिक्षा, गुरु और शास्त्र में अटूट विश्वास श्रद्धा तथा परमात्मा के चिन्तन में एकाग्रता समाधान कहे जाते हैं । चौथा साधन मोक्ष प्राप्ति की इच्छा ही मुमुक्षुत्व है । ये चारों साधन ज्ञानमार्गी के लिए आवश्यक हैं, इनके अभाव में कोई भी व्यक्ति ज्ञानप्राप्ति का अधिकारी नहीं है।
ज्ञानप्राप्ति के श्रवण, मनन और निदिध्यासन तीन अंग है । गुरु से तत्त्वज्ञान सुनने का नाम श्रवण, उस पर चिन्तन करने का नाम मनन और मननकृत पदार्थ की उपलब्धि का नाम निदिध्यासन है। इनके सम्यक् और उचित अभ्यास से मनुष्य को ब्रह्मस्वरूप का साक्षात्कार होता है । इस तरह प्रकृति के सभी भागों पर चिन्तन करते हुए साधक स्थूल से लेकर सूक्ष्म भावों तक अपना अधिकार स्थापित कर लेता है।
सांख्यदर्शन के अनुसार पंच महाभूत, पंच कर्मेन्द्रिय, पंच तन्मात्रा, मन, अहंकार, महत्तत्त्व और प्रकृति इन चौबीस तत्त्वों के आयाम में सृष्टि के प्राणी अर्थात् पुरुष प्रकृति का उपभोग करते हैं। पर वेदान्तप्रक्रिया में प्राणो की रचना के ज्ञानाथं पंचकोषों का निरूपण होता
है । तदनुसार चेतन जीव के माया से मोहित होने की स्थिति आनन्दमय कोष है । बुद्धि और विचार विज्ञानमय, ज्ञानेन्द्रिय और मन मनोमय, पंचप्राण और कर्मेन्द्रिय प्राणमय तथा पांचभौतिक शरीर अन्नमय कोष है। इन कोषों में बद्ध होकर मनुष्य या जीव अपने स्वरूप को भूल जाता है, लेकिन गुरु का उपदेश मिलने पर जब उसे अपने वास्तविक सच्चिदानन्द ब्रह्मस्वरूप का अनुभव होता है तो उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। जीव को माया से मुक्त कर मोक्ष तक पहुँचाने वाली क्रमिक स्थिति की सप्त ज्ञानभूमियाँ हैं । स्थूलदर्शी पुरुष के लिए सीधे आत्मा का ज्ञान हो जाना असम्भव है । इसलिए प्राचीन महर्षियों ने इन सप्त ज्ञानभूमियों के निरन्तर अभ्यास से क्रमोन्नति करते हुए विज्ञानमय सप्त दर्शनों के माध्यम से मोक्ष पाने का मार्ग बनाया । सप्त ज्ञानभूमियों के सप्त दर्शन हैं न्याय, वैशेषिक, पातञ्जल, सांख्य, पूर्वमीमांसा, दैवीमीमांसा और ब्रह्ममीमांसा । क्रमशः इनकी साधना करके जीव ज्ञानमय बुद्धि हो जाने से परम पद को प्राप्त होता है। ज्ञान प्राप्ति के ये ही मूल तत्त्व हैं।
ब्रह्ममीमांसा या वेदान्त विचार के द्वारा साधक को ब्रह्मज्ञान तब प्राप्त होता है जब वह देहात्मवाद से क्रमशः आस्तिकता की उच्चभूमि पर अग्रसर होता रहता है । अतः ऐसे साधक को एकाएक 'तत्त्वमसि', 'अहं ब्रह्मास्मि' का उपदेश नहीं देना चाहिए । ज्ञानमार्ग में प्रवेश चाहने वाले प्रथम अधिकारी के लिए अन्तःकरण के सुख-दुःख रूप आत्मतत्त्व के उपदेश का न्याय और वैशेषिक दर्शन में विधान है । देह को आत्मा समझने वाले व्यक्ति के लिए प्रथम कक्षा में देह और आत्मा की भिन्नता का ज्ञान ही पर्याप्त है। सूक्ष्म तत्त्व में सामान्य व्यक्ति का एकाएक प्रवेश नहीं हो सकता, इसलिए न्याय और वैशेषिक दर्शन में आत्मा और शरीर के केवल पार्थक्य का ही ज्ञान कराया जाता है । इससे साधक देहात्मवाद से विरत हो व्यावहारिक तत्त्वज्ञान की ओर अग्रसर होता है। इससे आगे बढ़ने पर सांख्य और पातञ्जल दर्शन आत्मा के और भी उच्चतर स्तर का दिग्दर्शन कराते हैं। इन दोनों दर्शनों के अनुसार सुख-दुःख आदि सब अन्तःकरण के धर्म हैं । पुरुष को वहाँ असंग और कूटस्थ माना गया है । पुरुष के अन्तःकरण में सुख-दुःखादि का भोक्तभाव औपचारिक है; तात्त्विक इसलिए नहीं है कि आत्मा निलिप्त और
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org