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पूजा का विधान है। जैन धर्म आत्मा में विश्वास करता है और प्रकृति के प्रवाह को सनातन मानता है। इसका अध्यात्मशास्त्र काफी जटिल है। जैन दर्शन की ज्ञानमीमांसा का आधार नय ( अथवा न्याय = तर्क ) है । यह आगमपरम्परा का है, निगमपरम्परा का नहीं । इसके सप्तभङ्गी नय को 'स्वावाद' कहते हैं। यह वस्तु को अनेक धर्मात्मक मानता है और इसके अनुसार सत्य सापेक्ष और बहुमुखी है। इसको 'अनेकान्तवाद' भी कहते हैं। इसके अनुसार एक ही पदार्थ में नित्यत्व और अनित्यस्य सादृश्य और विरूपत्व, सत्त्व और असत्त्व आदि परस्पर भिन्न धर्मों का सापेक्ष अस्तित्व स्वीकार किया जाता है ।
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जैन दर्शन के अनुसार विश्व है, बराबर रहा है और बराबर रहेगा । यह दो अन्तिम, सनातन और स्वतन्त्र पदार्थों में विभक्त है, वे हैं (१) जीव और (२) अजीव; एक चेतन और दूसरा जड़, किन्तु दोनों ही अज और अक्षर हैं । अजीव के पाँच प्रकार बतलाये गये हैं :
(१) पुद्गल (प्रकृति) (२) धर्म (गति) (३) अधर्म ( अगति अथवा लय ) (४) आकाश (देश) और (५) काल (समय) । सम्पूर्ण जीवधारी आत्मा तथा प्रकृति के सूक्ष्म मिश्रण से बने है। उनमें सम्बन्ध जोड़ने वाली कड़ी कर्म है । कर्म के आठ प्रकार और अगणित उप प्रकार हैं । कर्म से सम्पृक्त होने के ही कारण आत्मा अनेक प्रकार के शरीर धारण करने के लिए विवश हो जाता है और इस प्रकार जन्म-मरण (जन्म-जन्मान्तर) के बन्धन में फँस जाता है।
जैन धर्म और दर्शन का उद्देश्य है आत्मा को पुद्गल (प्रकृति) के मिश्रण से मुक्त कर उसको कैवल्य (केवल शुद्ध आत्मा) की स्थिति में पहुँचाना कैवल्य की स्थिति में कर्म के बन्धन टूट जाते हैं और आत्मा अपने को पुद्गल के अवरोधक बन्धनों से मुक्त करने में समर्थ होता है । इसी स्थिति को मोक्ष भी कहते हैं, जिसमें वेदना और दुःख पूर्णतः समाप्त हो जाते हैं और आत्मा चिरन्तन आनन्द की दशा में पहुँच जाता है । मोक्ष की यह कल्पना वेदान्ती कल्पना से भिन्न है। वेदान्त के अनुसार मोक्षावस्था में आत्मा का ब्रह्म में विलय हो जाता है, किन्तु जैन धर्म के अनुसार आत्मा का व्यक्तित्व कैवल्य में भी सुरक्षित और स्वतन्त्र रहता है। आत्मा स्वभावतः निर्मल
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जैमिनि जैमिनिभारत
और प्रश है, किन्तु पुद्गल के सम्पर्क के कारण उत्पन्न अविद्या से भ्रमित हो कर्म के बन्धन में पड़ता है । कैवल्य के लिए नय के द्वारा 'केवल ज्ञान' प्राप्त करना आवश्यक है । इसके साधन हैं -- ( १ ) सम्यक् दर्शन (तीर्थङ्करों में पूर्ण श्रद्धा) (२) सम्यक् ज्ञान (शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान ) ( ३ ) सम्यक् चारित्र्य ( पूर्ण नैतिक आचरण) । जैन धर्म बिना किसी बाहरी सहायता के अपने पुरुषार्थ द्वारा पार मार्थिक कल्याण प्राप्त करने का मार्ग बतलाता है । भारतीय धर्म और दर्शन को इसने कई प्रकार से प्रभावित किया । ज्ञानमीमांसा के क्षेत्र में अपने नय सिद्धान्त द्वारा न्याय और तर्कशास्त्र को पुष्ट किया । तत्त्वमीमांसा में आत्मा और प्रकृति को ठोस आधार प्रदान किया । आचारशास्त्र में नैतिक आचारण, विशेष कर अहिंसा को इससे नया बल मिला ।
जैमिनि - स्वतन्त्र रूप से 'जैमिनि' का नाम सूत्रकाल तक नहीं पाया जाता, किन्तु कुछ वैदिक ग्रन्थों के विशेषण रूप में प्राप्त होता है । यथा सामवेद की 'जैमिनीय संहिता', जिसका सम्पादन कैलेण्ड द्वारा हुआ है, 'जैमिनीय ब्राह्मण' जिसका एक अंश जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण है ।
इनका काल लगभग चतुर्थ अथवा पञ्चम शताब्दी ई० पू० है ये पूर्वमीमांसा सूत्र' के रचयिता तथा मोमांसा दर्शन के संस्थापक थे । ये बादरायण के समकालीन थे क्योंकि मीमांसादर्शन के सिद्धान्तों का ब्रह्मसूत्र में और ब्रह्मसूत्र के सिद्धान्तों का मीमांसादर्शन में खण्डन करने की चेष्टा की गयी है। मीमांसादर्शन ने कहीं-कहीं पर ब्रह्मसूत्र के कई सिद्धान्तों को ग्रहण किया है। पुराणों में ऐसा वर्णन मिलता है कि जैमिनि वेदव्यास के शिष्य थे, इन्होंने वेदव्यास से सामवेद एवं महाभारत की शिक्षा पायी थी। मीमांसादर्शन के अतिरिक्त इन्होंने भारतसंहिता की, जिसे जैमिनिभारत भी कहते हैं, रचना की थी । इन्होंने द्रोणपुत्रों से मार्कण्डेय पुराण सुना था। इनके पुत्र का नाम सुमन्तु और पौत्र का नाम सत्वान था । इन तीनों पिता-पुत्र-पौत्र ने वेदमंत्रों की एक-एक संहिता (संस्करण) बनायी, जिनका अध्ययन हिरण्यनाभ, पौष्यज्जि और आवस्य नाम के तीन शिष्यों ने किया। जैमिनिभारत जैमिनिभारत या जैमिनीयाश्वमेघ मूलतः संस्कृत भाषा में है, जिसका एक अनुवाद कन्नड में लक्ष्मीदेवपुर ने १७६० ई० में किया। इसमें युधिष्ठिर के
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