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ज्येष्ठावत-जैनधर्म
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जैन धर्म की दो प्रमुख शाखाएं है-दिगम्बर और श्वेताम्बर । 'दिगम्बर' का अर्थ है 'दिक् (दिशा) है अम्बर (वस्त्र) जिसका' अर्थात् नग्न । अपरिग्रह और त्याग का यह चरम उदाहरण है। इसका उद्देश्य है सभी प्रकार के संग्रह का त्याग। इस शाखा के अनुसार स्त्रियों को मोक्ष नहीं मिल सकता, क्योंकि वे वस्त्र का पूर्णतः त्याग नहीं कर सकतीं। इनके तीर्थङ्करों की मूर्तियाँ नग्न होती है । इसके अनुयायी श्वेताम्बरों द्वारा मानित अङ्ग साहित्य को भी प्रामाणिक नहीं मानते । 'श्वेताम्बर' का अर्थ है 'श्वेत (वस्त्र) है आवरण जिसका' । श्वेताम्बर नग्नता को विशेष महत्त्व नहीं देते। इनकी देवमूर्तियाँ कच्छ धारण करती हैं। दोनों सम्प्रदायों में अन्य कोई मौलिक अन्तर नहीं हैं। एक तीसरा उपसम्प्रदाय सुधारवादी स्थानकवासियों का है जो मूर्तिपूजा का विरोधी और आदिम सरल स्वच्छ
ज्येष्ठाव्रत-भाद्र शुक्ल अष्टमी को ज्येष्ठा नक्षत्र होने पर इस व्रत का आचरण किया जाता है। इसमें ज्येष्ठा नक्षत्र की पूजा का विधान है । यह नक्षत्र उमा तथा लक्ष्मी का प्रतीक माना जाता है। इससे अलक्ष्मी ( दारिद्रय तथा दुर्भाग्य ) दूर हो जाती है । उपर्युक्त योग के दिन रविवार होने पर यह नील ज्येष्ठा भी कहलाती है। जैत्रायण सहोजित-काठक संहिता (१८.५) में वर्णित एक राजा का विरुद, जिसने राजसूय यज्ञ किया था। कुछ विद्वानों ने जैत्रायण को व्यक्तिवाचक बताया है जो पाणिनि के सन्दर्भ 'कर्णादि गण' के अनुसार बना है । किन्तु कपि- ष्ठल संहिता में पाठ भिन्न है तथा इससे किसी भी व्यक्ति का बोध नहीं होता। यहाँ कर्ता इन्द्र है। यह पाठ अधिक सम्भव है तथा इससे उन सभी राजाओं का बोध होता है जो इस यज्ञ को करते हैं। जैन धर्म-वेद को प्रमाण न मानने वाला एक भारतीय धर्म, जो अपने नैतिक आचरण में अहिंसा, त्याग, तपस्या आदि को प्रमुख मानता है । जैन शब्द 'जिन' से बना है जिसका अर्थ है 'वह पुरुष जिसने समस्त मानवीय वासनाओं पर विजय प्राप्त कर ली है।' अर्हन् अथवा तीर्थकर इसी प्रकार के व्यक्ति थे, अतः उनसे प्रवर्तित धर्म जैन धर्म कहलाया। जैन लोग मानते हैं कि उनका धर्म अनादि
और सनातन है। किन्तु काल से सीमित है, अतः यह विकास और तिरोभाव-क्रम से दो चक्रों-उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में विभक्त है। उत्सर्पिणी का अर्थ है ऊपर. जाने वाली । इसमें जीव अधोगति से क्रमश : उत्तम गति को प्राप्त होते हैं। अवसर्पिणी में जीव और जगत् क्रमशः उत्तम गति से अधोगति को प्राप्त होते हैं। इस समय अवसर्पिणी का पाँचवा (अन्तिम से एक पहला) युग चल रहा है। प्रत्येक चक्र में चौबीस तीर्थङ्कर होते हैं। इस चक्र के चौबीसों तीर्थङ्कर हो चुके हैं । इन चौबीसों के नाम
और वृत्त सुरक्षित हैं। आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव थे, जिनकी गणना सनातनधर्मी हिन्दू विष्णु के चौबीस अवतारों में करते हैं । इन्हीं से मानवधर्म (समाजनीति, राजनीति आदि) की व्यवस्था प्रचलित हुई। तेईसवें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ हुए जिनका निर्वाण ७७६ ई० पू० में हुआ। चौबीसवें तीर्थङ्कर वर्धमान महावीर हुए (दे० 'महावीर')। इन्हीं तीर्थङ्करों के उपदेशों और वचनों से जैन धर्म का विकास और प्रचार हुआ।
तेरह पंथियों की है जो इनसे उग्र सुधारक हैं।
जैन धर्म के धार्मिक उपदेश मूलतः नैतिक हैं, जो अधिकतर पार्श्वनाथ और महावीर की शिक्षाओं से गृहीत हैं। पाश्वनाथजी के अनुसार चार महाव्रत है-(१) अहिंसा (२) सत्य (३) अस्तेय और (४) अपरिग्रह । महावीर ने इसमें ब्रह्मचर्य को भी जोड़ा । इस प्रकार जैन धर्म के पाँच महाव्रत हो गये। इनका आत्यन्तिक पालन भिक्षुओं के लिए आवश्यक है। श्रावक अथवा गृहस्थ के लिए अणुव्रत व्यावहारिक है। वास्तव में जैन धर्म का मूल और आधार अहिंसा ही है। मनसा वाचा कर्मणा किसी को दुःख न पहुँचाना अहिंसा है, अप्राणिवध उसका स्थूल रूप किन्तु अनिवार्य है। जीवधारियों को इन्द्रियों की संख्या के आधार पर वर्गीकृत किया गया है । जिनकी इन्द्रियाँ जितनी कम विकसित है उनको शरीरत्याग में उतना ही कम कष्ट होता है। इसलिए एकेन्द्रिय जीवों (वनस्पति, कन्द, फूल, फल आदि) को ही जैनधर्मी ग्रहण करते हैं, जैनधर्म में आचारशास्त्र का बड़ा विस्तार हुआ है । छोटे से छोटे व्यवहार के लिए भी धार्मिक एवं नैतिक नियमों का विधान किया गया है ।
जैनधर्म में धर्मविज्ञान का प्रायः अभाव है, क्योंकि यह जगत् के कर्ता-धर्ता-संहर्ता के रूप में ईश्वर को नहीं मानता। ईश्वर, देव, प्रेत, राक्षस आदि सभी का इसमें प्रत्याख्यान है। केवल तीर्थकर ही अतिभौतिक पुरुष है, जिनकी
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