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जेमिनिश्रोतसूत्र-ज्ञान
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अश्वमेधयज्ञीय अश्व द्वारा भारत के एक राज्य से दूसरे स्वामी शंकराचार्य द्वारा स्थापित उत्तराम्नाय ज्योतिराज्य में घूमने का वर्णन है। किन्तु इसका मुख्य उद्देश्य पीठ पूर्व काल में यहाँ विद्यमान था। इसी का अपभ्रंश भगवान् कृष्ण का यश वर्णन करना है।
नाम जोशीमठ है। कालान्तर में शांकरमठ और उसकी जैमिनिश्रौतसूत्र-सामवेद से सम्बन्धित एक सूत्र ग्रन्थ, जो परम्परा लुप्त हो गयी । केवल नाम रह गया है, जिसके वैदिक यज्ञों का विधान करता है।
आधार पर कुछ संत-महंत मैदान के नगरों में धर्म प्रचार जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण-ताण्ड्य और तलवकार शाखाएँ करते रहते हैं । सामवेद के अन्तर्गत हैं। उनमें जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण ज्ञाति-मूल रूप में इस शब्द का अर्थ 'परिचित' है, किन्तु दूसरी शाखा से सम्बन्धित है । इसका अन्य नाम तलबकार ऋग्वेद तथा परवर्ती साहित्य में इसका अर्थ 'पितापक्षीय उपनिषद् ब्राह्मण भी है। कुछ विद्वानों का मत है कि यह रक्तसम्बन्धी लोग' समझा गया है। पितृसत्तात्मक वैदिक ग्रन्थ प्रारम्भिक छ: उपनिषदों में गिना जाना चाहिए। समाज के गठन से भी इस अर्थ की पुष्टि होती है। यह जैमिनीय न्यायमालाविस्तर-जैमिनीय न्यायमाला तथा
प्रायः जाति का पर्याय है। जमिनीय न्यायमालाविस्तर एक ही ग्रन्थ है। इसे विजय- ज्ञातपाप-भक्तिमार्ग में पाप दो प्रकार के कहे गये हैंनगर राज्य के मन्त्री माधवाचार्य ने रचा है । मीमांसा दर्शन।
अज्ञात तथा ज्ञात । अज्ञात पापों को यज्ञों से दूर किया जा की पूर्णरूपेण ब्याख्या इस ग्रन्थ में हुई है। न्यायमाला . सकता ह, याद व यज्ञ निष्काम भाव से किय गय हो। जैमिनिसूत्रों के एक-एक प्रकरण को लेकर श्लोकबद्ध
जहाँ तक ज्ञात पापों का प्रश्न है, जब मनुष्य भक्तिमार्ग कारिकाओं के रूप में है, विस्तर उसको विवरणात्मक
में प्रविष्ट हो अथवा निष्काम कर्म में लीन हो, तो वह व्याख्या है । यह पूर्व मीमांसा का प्रमुख ग्रन्थ है। इसकी
पापों को याद करता ही नहीं, और करता भी है तो उपादेयता इसके छन्दोबद्ध होने के कारण भी है।
भगवान् उसे क्षमा कर देते हैं । भगवत्कृपा ही ज्ञात पाप
मोचन का मार्ग है। जैमिनीय ब्राह्मण-कृष्ण यजुर्वेद का ब्राह्मण भाग मन्त्रसंहिता के साथ ही ग्रथित है। उसके अतिरिक्त छ: ब्राह्मणग्रन्थ
ज्ञान-जन्म से मनुष्य अपूर्ण होता है । ज्ञान के द्वारा ही
उसमें पूर्णता आती है। ब्रह्मरूप परमात्मा की सत्ता में पृथक् रूप से यज्ञ सम्बन्धी क्रियाओं के लिए महत्त्वपूर्ण
आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक तीनों शक्तियाँ हैं। वे हैं ऐतरेय, कौषीतकि, पञ्चविंश, तलवकार अथवा जैमिनीय, तैत्तिरीय एवं शतपथ । इस प्रकार जैमिनीय
वर्तमान हैं । पादेन्द्रिय को अध्यात्म, गन्तव्य को अधिभूत
और विष्णु को अधिदैव माना गया है। इसी प्रकार ब्राह्मण कर्मकाण्ड का प्रसिद्ध ग्रन्थ है । जैमिनीय शाखा-सामसंहिता की तीन मुख्य शाखाएँ बतायी
वागिन्द्रिय तथा चक्षुरिन्द्रिय को क्रमशः अध्यात्म, वक्तव्य
और रूप को अधिभूत, अग्नि और सूर्य को अधिदैव कहते जाती है-कौथुमीय, जैमिनीय एवं राणायनीय शाखा ।
हैं । मन को अध्यात्म, मन्तव्य को अधिभूत और चन्द्रमा जैमिनीय शाखा का प्रचार कर्णाटक में अधिक है।
को अधिदैव कहा गया है । इसी क्रम से प्राणी के भी तीन जैमिनीय सूत्रभाष्य-सं० १५८२ वि० के लगभग 'जैमिनीय
भाव होते हैं-आधिभौतिक शरीर, आधिदैविक मन और सूत्रभाष्य' नाम का ग्रन्थ वल्लभाचार्य ने जैमिनि के
आध्यात्मिक बुद्धि । इन तीनों के सामञ्जस्य से ही मनुष्य मीमांसासूत्र पर लिखा था।
में पूर्णता आती है । इस पूर्णता की प्राप्ति के लिए ईश्वर जोशीमठ-बदरीनाथ धाम से २० मील नीचे जोशीमठ से निःश्वसित वेद का अध्ययन और अभ्यास आवश्यक है, अथवा ज्योतिर्मठ स्थित है । यहाँ शीतकाल में छ: महीने क्योंकि वेदमन्त्रों में मूल रूप से इसके उपाय निरूपित है। बदरीनाथजी की चलमूर्ति विराजमान रहती है। उस मनुष्य को आधिभौतिक शुद्धि कर्म के द्वारा, आधिदैविक समय यहाँ पूजा होती है । ज्योतीश्वर महादेव तथा भक्त
शुद्धि उपासना के द्वारा तथा आध्यात्मिक शुद्धि ज्ञान के वत्सल भगवान् के दो मन्दिर हैं। ज्योतीश्वर शिवमन्दिर
द्वारा प्राप्त होती है । आध्यात्मिक शुद्धि प्राप्त होने पर प्राचीन है। जोशीमठ से एक रास्ता नीती घाटी होकर परमात्मा के स्वरूप की उपलब्धि हो जाती है और मनुष्य मानसरोवर कैलास के लिए जाता है।
को मोक्ष मिल जाता है।
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