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जयराम-जल
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जयराम-पारस्कर रचित 'कातीय गृह्यग्रन्थ' पर जयराम जराबोध-ऋग्वेद में केवल एक बार यह शब्द आया है की एक टीका बहुत प्रसिद्ध है।
तथा इसका अर्थ सन्देहात्मक है। लुडविग ने इसको जयापञ्चमी–हेमाद्रि, १.५४३-५४६ के अनुसार विष्णु का ऋषि का नाम बताया है। ओल्डेनवर्ग इसे व्यक्तिवाचक पूजन ही इस व्रत में कर्तव्य है। मास का उल्लेख नहीं बताते हैं तथा इसका शाब्दिक अर्थ 'वृद्धावस्था में सावमिलता । इसका अर्थ है कि प्रत्येक मास में यह व्रत करना धानी' लगाते हैं। चाहिए।
जराबोध शरीर की एक स्थिति है। इसके कई लक्षण जयापार्वतीव्रत-आश्विन शुक्ल त्रयोदशी को आरम्भ करके हैं, जैसे कान के सम्पुट पर के बालों का श्वेत होना । यह कार्तिक कृष्ण तृतीया को इस व्रत की समाप्ति की जाती इस बात की चेतावनी है कि गार्हस्थ्य जीवन से मनुष्य है। इसमें उमा तथा महेश्वर की पूजा का विधान है। को विरक्त होकर वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण करना चाहिए। २० वर्षपर्यन्त यह व्रत किया जाता है। प्रथम पाँच वर्षों जतिल–'जतिल' (जंगली तिल) का उल्लेख तैत्तिरीय संहिता में लवण निषिद्ध है। चावल का सेवन विहित है किन्तु (५.४.३.२) में अयोग्य यज्ञसामग्री के रूप में हुआ है । शतगन्ने की बनी शक्कर, गड अथवा अन्य कोई भी मिष्ट पथ ब्राह्मण (९.१.१.३) में जर्तिल के बीजों में ग्रहण वस्तु निषिद्ध है । यह व्रत गुर्जरों में अत्यन्त प्रसिद्ध है। करने के गुण के साथ ही अग्रहणीय (क्योंकि वे अकर्षित जयावाप्ति-आश्विन की समाप्ति के पश्चात् प्रथम तिथि भूमि पर उगते हैं) गुण बताया गया है। से पूर्णिमा (कार्तिकी पूर्णिमा) तक यह व्रत होता है। जर्वर-पञ्चविंश ब्राह्मण में वर्णित सर्पोत्सव में 'जवर' विशेष कर कार्तिकी पूर्णिमा से पहले वाले तीन दिन विष्णु गृहपति थे। की पूजा होती है। इससे कठिन प्रकार के काम्य कर्मी में जरिता-वैदिक संहिता में 'जरिता' का उल्लेख एक सारङ्ग सफलता मिलती है, जैसे विवाद, न्यायिक झगड़े, प्रणय पक्षी के रूप में हुआ है। इससे संबन्धित मन्त्र का आशय सम्बन्ध आदि।
महाभारत के ऋषि मन्दपाल की कथा से जोड़ा जाता है, जया तिथि-तृतीया, अष्टमी तथा त्रयोदशी जया तिथियाँ जिन्होंने 'जरिता' नामक सारङ्ग पक्षी (मादा) से विवाह हैं । निर्णयामृत, ३९ कहता है कि युद्ध के अवसरों की किया, तथा उनके चार पुत्र हुए। उन पुत्रों को ऋषि ने तैयारियों के लिए ये तिथियाँ उपयुक्त हैं और इन दिनों त्याग दिया तथा दावानल को सौंप दिया। साथ ही मन्दशक्ति प्रदर्शन अवश्य सफल होते हैं।
पाल ने ऋग्वेद (१०.१४२) के अनुसार अग्नि की प्रार्थना जया सप्तमी-(१) शुक्ल पक्ष की सप्तमी को रोहिणी, की। यह पौराणिक अर्थ सन्देहात्मक है, यद्यपि सायण ने आश्लेषा, मघा, हस्त नक्षत्र होने पर इस व्रत का अनु- इसे ही ग्रहण किया है। ष्ठान होना चाहिए। इसमें सूर्य की पूजा होती है । एक जरूथ-यह शब्द ऋग्वेद की तीन ऋचाओं में उद्धृत है । वर्षपर्यन्त यह चलना चाहिए। मास को तीन भागों में
इससे एक दानव का बोध होता है जिसे अग्नि ने हराया विभाजित करके प्रत्येक भाग में भिन्न-भिन्न पुष्प, धूप तथा
था । लुडविग तथा ग्रिफिथ ने 'जरूथ' को देवशत्रु बताया नैवेद्यों से पूजा करनी चाहिए।
है, जो उस युद्ध में मारा गया, जिसमें ऋग्वेद के सप्तम जरा-(१) तान्त्रिक सिद्धान्तानुसार पाताल में शक्ति मण्डल के परम्परागत रचयिता वसिष्ठ पुरोहित थे ।
की अवस्थिति है, ब्रह्माण्ड में शिव निवास करते हैं. अन्त- जल-पुरुषसूक्त के १३वें मन्त्र (पद्भ्यां भूमिः) के अनुसार रिक्ष में काल की अवस्थिति है और इस काल से ही 'जरा' पृथ्वी के परमाणुकारणस्वरूप से विराट् पुरुष ने स्थूल की उत्पत्ति होती है। गीता के अनुसार जन्म, मृत्यु, पृथिवी उत्पन्न की तथा जल को भी उसी कारण से जरा और व्याधि जीव के चार दुःख हैं, जिनका अनुदर्शन उत्पन्न किया। १७वें मंत्र में कहा गया है कि उस परमनुष्य को करना चाहिए (जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधि-दुःख- मेश्वर ने अग्नि के परमाणु के साथ जल के परमाणुओं दोषानुदर्शनम् । गीता १३.८)।
को मिलाकर जल को रचा। (२) पुराणों में जरा नाम की राक्षसी का भी वर्णन धार्मिक क्रियाओं में जल का विशेष स्थान है। जल मिलता है। महाभारत में जरासन्ध की कथा प्रसिद्ध है। वरुण देवता का निवास और स्वयं भी देवता होने से पवित्र
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