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काशी
तथा पश्चिम में विनायकतीर्थ है। इसका विस्तार धनुषा- ११८) और काशी की तिलमात्र भूमि भी शिवलिङ्ग से कार है, जिसका गङ्गा अनुगमन करती है। मत्स्यपुराण अछूती नहीं है। जैसे काशीखण्ड के दसवें अध्याय में (१८४.५०-५२) के अनुसार इसका क्षेत्रविस्तार ढाई ही ६४ लिङ्गों का वर्णन है। ह्वेनसांग के अनुसार उसके योजन पूर्व से पश्चिम और अर्द्ध योजन उत्तर से दक्षिण है। समय में काशी में सौ मन्दिर थे और एक मन्दिर में इसका प्रथम वृत्त सम्पूर्ण काशीक्षेत्र का सूचक है। पद्म- भगवान् महेश्वर की १०० फुट ऊँची ताँबे की मूर्ति थी। पुराण (पातालखण्ड) के अनुसार यह एक वृत्त से घिरी हुई किन्तु दुर्भाग्यवश विधर्मियों द्वारा काशी के सहस्रों है, जिसकी त्रिज्यापंक्ति मध्यमेश्वर से आरम्भ होकर देहली- मन्दिर विध्वस्त कर दिये गये और उनके स्थान पर विनायक तक जाती है। यह दूरी दो योजन तक है मस्जिदों का निर्माण किया गया। औरंगजेब ने तो काशी (मत्स्यपुराण, अध्याय १८१.६१-६२)।
का नाम मुहम्मदाबाद रख दिया था । परन्तु यह नाम अविमुक्त उस पवित्र स्थल को कहते है, जो २०० चला नहीं और काशी में मन्दिर फिर बनने लगे। धनुष व्यासार्ध (८०० हाथ या १२०० फुट) में विश्वे- भगवान् विश्वनाथ काशी के रक्षक हैं और उनका श्वर के मन्दिर के चतुर्दिक् विस्तृत है। काशीखण्ड में मन्दिर सर्वप्रमुख है। ऐसा विधान है कि प्रत्येक काशीअविमुक्त को पंचकोश तक विस्तृत बताया गया है। पर वासी को नित्य गङ्गास्नान करके विश्वनाथ का दर्शन वहाँ यह शब्द काशी के लिए प्रयुक्त हुआ है। पवित्र करना चाहिए। पर औरंगजेब के बाद लगभग १०० वर्षों काशीक्षेत्र का सम्पूर्ण अन्तर्वृत्त पश्चिम में गोकर्णेश से तक यह व्यवस्था नहीं रही । शिवलिङ्ग को तीर्थयात्रियों लेकर पूर्व में गङ्गा की मध्यधारा तथा उत्तर में भारभूत के सुविधानुसार यत्र-तत्र स्थानान्तरित किया जाता रहा से दक्षिण में ब्रह्मेश तक विस्तृत है।
(त्रिस्थलीसेतु, पृ० २०८)। वर्तमान मन्दिर अठारहवीं __काशी का धार्मिक माहात्म्य बहुत अधिक है। महा
शताब्दी के अन्तिम चरण में रानी अहल्याबाई होल्कर भारत (वनपर्व ८४.७९.८०) के अनुसार ब्रह्महत्या का अप
द्वारा निर्मित हुआ। अस्पृश्यता का जहाँ तक प्रश्न है, राधी अविमुक्त में प्रवेश करके भगवान विश्वेश्वर की मति त्रिस्थलीसेतु (पृष्ठ १८३) के अनुसार अन्त्यजों (अस्पृश्यों) का दर्शन करने मात्र से ही पापमुक्त हो जाता है और .
के द्वारा लिङ्गस्पर्श किये जाने में कोई दोष नहीं है, यदि वहाँ मृत्यु को प्राप्त होता है तो उसे मोक्ष मिलता
क्योंकि विश्वनाथजी प्रतिदिन प्रातः ब्रह्मवेला में मणिहै। अविमुक्त में प्रवेश करते ही सभी प्रकार के प्राणियों
कणिका घाट पर गङ्गास्नान करके प्राणियों द्वारा ग्रहण के पूर्वजन्मों के हजारों पाप क्षणमात्र में नष्ट हो जाते है। धर्म में आसक्ति रखने वाला व्यक्ति काशी में मृत्यु होने काशी में विश्वनाथ के पूजनोपरान्त तीर्थयात्री को पर पुनः संसार को नहीं देखता । संसार में योग के द्वारा पाँच अवान्तर तीर्थों-दशाश्वमेध, लोलार्क, केशव, मोक्ष (निर्वाण) की प्राप्ति नहीं हो सकती, किन्तु अवि- बिन्दुमाधव तथा मणिकर्णिका का भी परिभ्रमण करना मुक्त में योगी को मोक्ष सिद्ध हो जाता है (मत्स्य० १८५. आवश्यक है (मत्स्य०)। आधुनिक काल में काशी के अवा१५-१६)। कुछ स्थलों पर वाराणसी तथा वहाँ की न्तर पाँच तीर्थ 'पञ्चतीर्थी' के नाम से अभिहित किये नदियों के सम्बन्ध में रहस्यात्मक संकेत भी मिलते हैं। जाते हैं और वे हैं गङ्गा-असी-संगम, दशाश्वमेध घाट, उदाहरणार्थ, काशीखण्ड में असी को 'इडा', वरणा को । मणिकर्णिका, पञ्चगङ्गा तथा वरणासंगम । लोलार्क तीर्थ 'पिङ्गला', अविमुक्त को 'सुषुम्ना' तथा इन तीनों के सम्मि- असीसंगम के पास वाराणसी की दक्षिणी सीमा पर स्थित लित स्वरूप को काशी कहा गया है (स्कन्द, काशीखण्ड है। वाराणसी के पास गङ्गा की धारा तो तीव्र है और ५१५)। परन्तु लिंगपुराण का इससे भिन्न मत है। वहाँ वह सीधे उत्तर की ओर बहती है, इसलिए यहाँ इसकी
पवित्रता का और भी अधिक माहात्म्य है। दशाश्वमेध सुषुम्ना कहा गया है।
घाट तो शताब्दियों से अपनी पवित्रता के लिए ख्यातिलब्ध पुराणों में कहा गया है कि काशीक्षेत्र के एक-एक है। काशीखण्ड (अध्याय ५२, ५६, ६८) के अनुसार पग में एक-एक तीर्थ की पवित्रता है (स्कन्द, काशी० ५९, दशाश्वमेध का पूर्व नाम 'रुद्रसर' है। किन्तु जब ब्रह्मा
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