________________
गोमय-गोमांस
२४७
बुड्ढा ,
आकर मिलने वाली गोमल नदी से यह निश्चय ही अभिन्न समझी जा सकती है। गेल्डनर का मत है कि गुमती या इसकी चार ऊपरी शाखाओं (क्योंकि यह शब्द बहुवचन में है) से ही उपर्युक्त नदी का साम्य है । परवर्ती साहित्य में इस नदी को कुरुक्षेत्र में स्थित तथा वैदिक सभ्यता का केन्द्रस्थल कहा गया है । आजकल इस नाम की गङ्गा की सहायक नदी उत्तर प्रदेश में प्रवाहित होती है। इसके किनारे लखनऊ, जौनपुर आदि नगर हैं।
महाभारत (६.९.१७) में एक पवित्र नदी के रूप में इसका उल्लेख है, जिसके किनारे त्र्यम्बक महादेव का स्थान है :
गोमती धूतपापां च चन्दनाञ्च महानदीम् ।
अस्यास्तीरे महादेवस्त्र्यम्बकमूर्त्या विराजते ।। महालिङ्गेश्वरतन्त्र के शिवशतनाम स्तोत्र में भी कथन है :
त्र्यम्बको गोमतीतीरे गोकर्णे च त्रिलोचनः ।
स्कन्दपुराण के काशीखण्ड (२९.५१) में गोमती का गङ्गा के पर्याय के रूप में उल्लेख है : 'गोमती गुह्यविद्या गोर्गोत्री गगनगामिनी ।'
देवीभागवत (७.३०.५७) के अनुसार गोमती एक देवी का नाम है :
'गोमन्ते गोमती देवी मन्दरे कामचारिणी ।' प्रायश्चित्ततत्त्व में उद्धृत शातातप के अनुसार गोमती एक प्रकार का वैदिक मन्त्र है :
पञ्चगव्येन गोघाती मासकेन विशध्यति ।
गोमतीञ्च जपेद् विद्यां गवां गोष्ठे च संवसेत् ।। गोमय-गाय का पुरीष (गोबर) । पञ्चगव्य (गाय के पाँच विकारों) में से यह एक है। महाभारत के दानधर्म में इसका माहात्म्य वर्णित है :
शतं वर्षसहस्राणां तपस्तप्तं सुदुष्करम् । गोभिः पूर्व विष्ताभिर्गच्छेम श्रेष्ठतामिति ।। अस्मत्पुरीषस्नानेन जनः पूयेत सर्वदा । सकृता च पवित्रार्थं कुर्वीरन् देवमानुषाः ।। ताभ्यो वरं ददौ ब्रह्मा तपसोऽन्ते स्वयं प्रभुः । एवं भवत्विति विभुर्लोकांस्तारयतेति च ॥ मनुस्मृति (११.२१२) के अनुसार कृच्छ्रसान्तपन व्रत में गोमयभक्षण का विधान है :
गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्पिः कुशोदकम् । एकरात्रोपवासश्च कृच्छ्सान्तपनं स्मृतम् ।।
बुड्ढी, वन्ध्या, रोगात, सद्यः प्रसूता गाय का गोमय वर्जित है :
अत्यन्तजीर्णदेहाया बन्ध्यायाश्च विशेषतः । रोगार्तायाः प्रसूताया न गोर्गोमयमाहरेत् ।।
(चिन्तामणि में उद्धृत) गोमयादिसप्तमी-चैत्र शक्ल सप्तमी को इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। एक वर्षपर्यन्त इसका आचरण होता है। इसके सूर्य देवता हैं। प्रत्येक मास में भगवान् भास्कर का भिन्न-भिन्न नामों से पूजन, व्रती को पञ्चगव्य, यावक, अपने आप गिरी हुई पत्तियाँ अथवा दुग्धाहार ही ग्रहण करना चाहिए । दे० कृत्यकल्पतरु, १३५१३६; हेमाद्रि, १.७२४-७२५ । गोमांस-गोमांसभक्षण हिन्दू मात्र के लिए निषिद्ध है। अज्ञान से अथवा ज्ञानपूर्वक गोमांस भक्षण करने पर प्रायश्चित्त करना आवश्यक है । अज्ञानपूर्वक प्रथम वार भक्षण के लिए पराशर ने निम्नांकित प्रायश्चित्त का विधान किया है :
अगभ्यागमने चैव मद्य-गोमांस-भक्षणे । शुद्धौ चान्द्रायणं कुर्यान्नदीं गत्वा समुद्रगाम् ।। चान्द्रायणे ततश्चीणे कुर्याद्ब्राह्मणभोजनम् ।
अनुडुत्सहितां गाञ्च दद्याद् विप्राय दक्षिणाम् ।। [ अगभ्यागमन (अयोग्य स्त्री से संयोग), मद्यसेवन तथा गोमांसभक्षण के पाप से शुद्ध होने के लिए समुद्रगापिनी नदी में स्नान करके चान्द्रायणव्रत करना चाहिए। चान्द्रायण-व्रत के समाप्त होने पर ब्राह्मण-भोजन कराना चाहिए और ब्राह्मण को दान में बैल के साथ गाय देनी चाहिए । ज्ञानपूर्वक गोमांसभक्षण में संवत्सरबत का विधान है : गामश्वं कुञ्जरोष्ट्रौ च सर्व पञ्चनखं तथा । क्रव्यादं कुक्कुट ग्राम्यं कुर्यात् संवत्सरं व्रतम् ।। दुबारा गोमांसभक्षण के लिए संवत्सरव्रत के साथ पन्द्रह गायों का दान तथा पुनः उपनयन का विधान है (विष्णस्मृति)। विशेष विवरण के लिए देखिए 'प्रायश्चित्त विवेक'।
हठयोगप्रदीपिका ( ३.४७.४८) में गोमांसभक्षण प्रतीकात्मक है:
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org