________________
चातुर्मास्य-वामुण्डा
नाम से प्रसिद्ध एक नीतिग्रन्थ 'चाणक्यनीति' भी प्रचलित में उसी काल विभाग का अनुसरण किया गया है जो उस है । चाणक्य ने अर्थशास्त्र में वार्ता (अर्थशास्त्र) तथा दण्ड- समय प्रचलित था और आज भी प्रचलित है। नीति (राज्यशासन) के साथ आन्वीक्षिकी (तर्कशास्त्र) तथा चान्द्र व्रत-धर्मशास्त्र में इसकी कई विधियाँ पायी त्रयी (वैदिक ग्रन्थों) पर भी काफी बल दिया है। अर्थ- जाती है : शास्त्र के अनुसार यह राज्य का धर्म है कि वह देखे कि (१) अमावस्या के दिन इस व्रत का प्रारम्भ होता है। प्रजा वर्णाश्रम धर्म का उचित पालन करती है कि नहीं। एक वर्षपर्यन्त इसका आचरण करना चाहिए । दो कमलदे० 'कौटिल्य' और 'अर्थशास्त्र ।
पुष्पों पर सूर्य तथा चन्द्रमा की प्रतिमाओं का पूजन करना चातुर्मास्य-चातुर्मास्य से उन वैदिक यज्ञों का बोध होता है,
चाहिए। जो प्रत्येक ऋतु (ग्रीष्म, वर्षा, शीत) के आरम्भ में होते थे। (२) मार्गशीर्ष पूर्णिमा से आरम्भ करके एक वर्षपर्यन्त ये मौसम चार मासों के होते थे, अतएव ये उत्सव चार इसका अनुष्ठान करना चाहिए । प्रत्येक पूर्णिमा के दिन महीनों के अन्तर पर किये जाते थे। प्रथम 'वैश्व-देव' उपवास तथा चन्द्रमा के पूजन का विधान है। फाल्गुनी पूर्णिमा को, द्वितीय 'वरुण-प्रघास' आषाढ़ी (३) किसी भी पूर्णिमा के दिन इस व्रत का अनुष्ठान पूर्णिमा को तथा तीसरा 'शाकमेध' कार्तिकी पूर्णिमा को करना चाहिए। १५ वर्षपर्यन्त इसका आचरण होता है। मनाया जाता था। इन उत्सवों की क्रमशः दो और इस दिन नक्त भोजन करना चाहिए । इस व्रत के आचरण तिथियाँ भी हो सकती हैं-चैत्री, श्रावणी एवं आग्रहायणी से एक सहस्र अश्वमेध यज्ञ तथा सौ राजसूय यज्ञों का पूर्णिमा, या वैशाखी, भाद्रपदी एवं पौषी पूर्णिमा । पुण्य प्राप्त होता है। चातुर्मास्यव्रत-वर्षा के चार महीनों का संयुक्त नाम चातु
(४) इसके अनुष्ठान में चान्द्रायण व्रत का आचरण स्यि है । इसमें जो व्रत किया जाता है उसको भी चातु
करना चाहिए । चन्द्रमा की सुवर्णमयी प्रतिमा के दान का
इसमें विधान है। दे० हेमाद्रि, २.८८४; मत्स्य पुराण मस्यि कहा जाता है। इस व्रत में विभिन्न नियमों (भोजन तथा कुछ आचार-व्यवहारों के निषेध) का पालन होता है।।
१०१.७५; कृत्यकल्पतरु का व्रतकाण्ड, ४५० । तैल का सेवन तथा मर्दन, उद्वर्तन, ताम्बूल तथा गुड़ का
चान्द्रायण व्रत-(१) ब्रह्मपुराणोक्त यह व्रत पौष मास की
शुक्ल चतुर्दशी को मनाया जाता है। शास्त्र में एक और सेवन निषिद्ध है। मांसाहार, मधु तथा कुछ मद्य जैसी । उत्तेजक वस्तुएँ त्याज्य बतलायी गयी हैं। दे० हेमाद्रि,
चान्द्रायण व्रत का विधान है। चन्द्रमा के ह्रास के साथ २.८००-८६१ (कुछ ऐसे व्रतों का यहाँ उल्लेख है जो
आहार के ग्रासों में ह्रास और वृद्धि के साथ वृद्धि करके
एक महीने में यह व्रत पूरा किया जाता है । उद्देश्य पापवस्तुतः चातुर्मास्य व्रतों के अन्तर्गत नहीं आते); समय
मोचन है। घोर अपराधों के प्रायश्चित्त रूप में यह व्रत मयूख, १५०-१५२ ।
किया जाता है। चातुराश्रमिक-चार आश्रमों में से किसी एक में रहने
(२) यह व्रत पूर्णिमा के दिन आरम्भ होता है। एक वाला 'चातुराश्रमिक' कहलाता है । इससे बाहर के व्यक्ति
मास तक इसका आचरण करना चाहिए। प्रत्येक दिन अनाश्रमी, आश्रमेतर कहलाते हैं।
तर्पण तथा होम का विधान है। चान्द्र तिथि-वर्तमान चान्द्र मास, तिथि आदि पञ्चाङ्ग की चामुण्डा-(१) शिवपत्नी रुद्राणी के अनेक नाम है, यथा विधि अति प्राचीन है और वैदिक काल से चली आयी देवी, उमा, गौरी, पार्वती, दुर्गा, भवानी, काली, कपाहै। कालानुसार बीच-बीच में बड़े-बड़े ज्योतिषियों ने लिनी एवं चामुण्डा । दूसरे देवों की देवियों (पत्नियों) के करण-ग्रन्थ लिखकर और संस्कार द्वारा संशोधन करके विपरीत इन्हें धार्मिक आचारों में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान इस गणना को ठीक और शुद्ध कर रखा है। छः ऋतुओं का प्राप्त है तथा शिव से कुछ ही कम महत्त्व इनका है। विभाजन उसी तरह सुभीते के लिए हुआ, जिस तरह इनको पति के समान स्थान शिव के युगल (अद्वैत) रूप चान्द्र मास ३० तिथियों में बाँट दिया गया । वेदांगज्योतिष अर्द्धनारीश्वर में प्राप्त होता है, जिसमें दक्षिण भाग शिव
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org