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चैतन्यचरित-चैतन्य सम्प्रदाय
जीवनवृत्तान्त पर भी कतिपय ग्रन्थ कुछ वर्षों में रचे गये । 'चैतन्यचन्द्रोदय' उनमें से एक है। यह कवि कर्णपूर द्वारा रचित संस्कृत नाटक है । इसका नाम 'प्रबोधचन्द्रोदय' नामक आध्यात्मिक नाटक के अनुसार रखा गया प्रतीत होता है। चैतन्यचरित-मुरारि गुप्त रचित यह महाप्रभु कृष्ण चैतन्य की जीवनलीला का संस्कृत में वर्णन है। इसकी रचना सं० १६२९ वि० में हुई थी। चैतन्यचरितामृत-बँगला भाषा में कृष्णदास कविराज कृत महाप्रभु कृष्ण चैतन्य के जीवन से सम्बन्धित यह एक काव्य ग्रन्थ है । रचनाकाल सं० १६३८ वि० है । इसे कवि- राज ने नौ वर्षों के परिश्रम से उत्तर प्रदेशस्थ वृन्दावन (राधाकुण्ड) में तैयार किया था। यह ग्रन्थ बड़ा शिक्षापूर्ण है तथा चैतन्यजीवन पर सर्वोत्तम लोकप्रिय रचना है । इसे सम्प्रदाय के अनेक भक्त लोग कंठस्थ कर लेते हैं। श्री दिनेशचन्द्र सेन के मत से चैतन्य सम्प्रदाय के लिए यह ग्रन्थ बहुत प्रामाणिक और अति महत्त्व का है। चैतन्यदेव-दे० 'कृष्ण चैतन्य' । चैतन्यभागवत-महात्मा वृन्दावनदास रचित यह ग्रन्थ बँगला काव्य में चैतन्यदेव का सुन्दर जीवनचरित है। इसकी रचना सं० १६३० वि० में हुई। चैतन्यमङ्गल-कविवर लोचनदास कृत यह ग्रन्थ भी चैतन्यजीवन का ही बंग भाषा में वर्णन करता है। इसकी रचना सं० १६३२ वि० में हुई। चैतन्यसम्प्रदाय-(कृष्ण चैतन्य शब्द की व्याख्या में चैतन्य का जीवनवृत्तान्त देखिए ।) चैतन्य की परमपद-प्राप्ति सं० १५९० वि० में हुई तथा १५९० से १६१७ वि० तक बंगाल का वैष्णव सम्प्रदाय चैतन्य के वियोग से शोकाकुल रहा। साहित्यरचना तथा संगीत मृतप्राय से हो गये, किन्तु चैतन्य सम्प्रदाय जीवित रहा । नित्यानन्द ने इसकी व्यवस्था संभाली एवं चरित्र की नियमावली सबके समक्ष रखी। उनकी मृत्यु पर उनके पुत्र वीरचन्द्र ने पिता के कार्य को हाथ में लिया तथा एक ही दिन में २५०० बौद्ध संन्यासी तथा संन्यासिनियों को चैतन्य सम्प्रदाय में दीक्षित कर डाला । चैतन्य की मृत्यु के कुछ पूर्व से ही रूप, सना- तन तथा दूसरे कई भक्त वृन्दावन में रहने लगे थे तथा चैतन्य सम्प्रदाय की सीमा बँगाल से बाहर बढ़ने लगी थी। चैतन्य के छः साथी-रूप, सनातन, उनके भतीजे जीव,
रघुनाथदास, गोपाल भट्ट एवं रघुनाथ भट्ट 'गोस्वामी' कहलाते थे । 'गोस्वामी' से धार्मिक नेता का बोध होता था। ये लोग शिक्षा देते, पढ़ाते और दूसरे मतावलम्बियों को अपने सम्प्रदाय में दीक्षित करते थे। इन्होंने अपने सम्प्रदाय के धार्मिक नियमों से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थ लिखे । भक्ति, दर्शन, उपासना, भाष्य, नाटक, गीत आदि विषयों पर भी उन्होंने रचना की। ये रचनाएँ सम्प्रदाय के दैनिक जीवन, पूजा एवं विश्वास आदि पर ध्यान रखते हुए लिखी गयी थीं।
उक्त गोस्वामियों के लिए यह बड़ा ही शुभ अवसर था कि उनके वृन्दावन-वास काल में अकबर बादशाह भारत का शासक था तथा उसकी धार्मिक उदारता के कारण इन्होंने अनेक मन्दिर वृन्दावन में बनवाये और अनेक राजपूत राजाओं से आर्थिक सहायता प्राप्त की। ___ सत्रहवीं शती के प्रारम्भिक ४० वर्षी में चैतन्य आन्दोलन ने बंगाल में अनेक गीतकार उत्पन्न किये। उनमें सबसे बड़े गोविन्ददास थे। ज्ञानदास, बलरामदास, यदुनन्दन दास एवं राजा वीरहम्बीर ने भी अच्छे ग्रन्थों की रचना की।
अठारहवीं शती के आरम्भ में बलदेव विद्याभूषण ने वेदान्तसूत्र पर सम्प्रदाय के लिए भाष्य लिखा, जिसे उन्होंने 'गोविन्दभाष्य' नाम दिया तथा 'अचिन्त्य भेदाभेद' उसके दार्शनिक सिद्धान्त का नाम रखा ।
चैतन्य सम्प्रदाय में जाति-पाँति का भेद नहीं है । कोई भी व्यक्ति इसका सदस्य हो सकता है, पूजा कर सकता है तथा ग्रन्थ पढ़ सकता है। फिर भी विवाह के नियम एवं ब्राह्मण के पुजारी होने का नियम अक्षुण्ण था। केवल प्रारम्भिक नेताओं के वंशज ही गोस्वामी कहलाते थे। इन्हीं नियमों से अनेक मठ एवं मन्दिरों की व्यवस्था होती थी।
चैतन्य दसनामी संन्यासियों में से भारती शाखा के संन्यासी थे। उनके कुछ साथियों ने भी संन्यास ग्रहण किया। किन्तु नित्यानन्द तथा वीरचन्द्र ने आधुनिक साधुओं के सरल अनुशासन को जन्म दिया, जिसके अन्तगत वैष्णव साधु वैरागी तथा वैरागिनी कलहाने लगे। ऐसा ही पहले स्वामी रामानन्द ने किया था। इस सम्प्रदाय में हजारों भ्रष्ट शाक्त, और बौद्ध आकर दीक्षित हुए। फलतः बहुत बड़ी अशुद्धता सम्प्रदाय में भी आ गयी । आजकल इस साधुशाखा का आचरण सुधर गया है ।
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