________________
चैत्र-चौल (चूडाकरण)
२६९ इनके मन्दिरों में मुख्य मूर्तियाँ कृष्ण तथा राधा की 'हित' था जिसे उन्होंने इस ग्रन्थ के आरम्भ में जोड़ होती है, किन्तु चैतन्य, अद्वैत तथा नित्यानन्द की मूर्तियों दिया है । इनका समय १५३६ वि० के लगभग है। हितकी भी प्रत्येक मन्दिर में स्थापना होती है। कहीं-कहीं तो चौरासी तथा स्फुट पद दोनों ही व्रजभाषा में रचे गये केवल चैतन्य की ही मूर्ति रहती है । संकीर्तन इनका मुख्य
हैं। 'हितजी' की उक्त रचनाएं बड़ी मधुर एवं राधाकृष्ण धार्मिक एवं दैनिक कार्य है। कीर्तनीय (प्रधान गायक) के प्रेमरस से परिपूर्ण हैं। मन्दिर के जगमोहन में करताल एवं मृदंग वादकों के चौरासी वैष्णवन की वार्ता-वल्लभ सम्प्रदाय के अन्तर्गत बीच नाचता हुआ कीर्तन करता है। अधिकतर 'गौर- व्रजभाषा में कुछ ऐसे ग्रन्थ हैं, जो कृष्णचरित्र सम्बन्धी चन्द्रिका' का गायन एक साथ किया जाता है। संकीर्तन- कथाओं के प्रेमतत्त्व पर अधिक बल देते हैं। इनमें सबसे दल व्यक्तिगत घरों में भी संकीर्तन करता है।
मुख्य गोस्वामी गोकुलनाथजी की संग्रहरचना "चौरासी चैत्र-इस मास के सामान्य कृत्यों के लिए देखिए कृत्य
वैष्णवन की वार्ता" है जो १६०८ वि० सं० में लिखी गयी ।
इन वार्ताओं से अनेक भक्त कवियों के ऐतिहासिक कालरत्नाकर, ८३-१४४; निर्णयसिन्धु, ८१-९० । कुछ महत्त्व
क्रम निर्धारण में सहायता मिलती है । पूर्ण व्रतों का अन्यत्र भी परिगणन किया गया है। शुक्ल प्रतिपदा कल्पादि तिथि है । इस दिन से प्रारम्भ कर चार
चौरासी सिद्ध-बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा के अन्तर्गत मास तक जलदान करना चाहिए। शुक्ल द्वितीया को।
चौरासी सिद्ध बहुत प्रसिद्ध हैं। इनमें कुछ हठयोग के उमा, शिव तथा अग्नि का पूजन होना चाहिए। शुक्ल
अभ्यासी शैव सन्त भी गिने जाते हैं। इनके समय तक तृतीया मन्वादि तिथि है । उसी दिन मत्स्यजयन्ती मनानी
बौद्ध सन्त धर्म, प्रज्ञा, शील तथा समाधि का मार्ग छोड़चाहिए। चतुर्थी को गणेशजी का लड्डुओं से पूजन
कर चमत्कारिक सिद्धियों की प्राप्ति में लग गये थे। होना चाहिए। पञ्चमी को लक्ष्मीपूजन तथा नागों के
नीति और औचित्य का विचार इनकी साधना में नहीं पूजन का भी विधान है। षष्ठी के लिए देखिए 'स्कन्द
था। सिद्धों में सभी वर्गों के लोग सम्मिलित थे। अतः षष्ठी।' सप्तमी को दमनक पौधे से सूर्यपूजन की विधि ।
इनमें ब्राह्मणों के आचार-विचार का पालन नहीं होता है। अष्टमी को भवानीयात्रा होती है । इस दिन ब्रह्मपुत्र
था। इनमें से बहुत से सुरापी और परस्त्रीसेवी थे। ये नदी में स्नान का महत्त्व है । नवमी को भद्रकाली की पूजा
मांस आदि का भी सेवन करते थे। रजकी, भिल्लनी, होती है। दशमी को दमनक पौधे से धर्मराज की पूजा
डोमिनी आदि इनकी साधिकाएं थीं। सिद्ध इनमें से का विधान है। शक्ल एकादशी को कृष्ण भगवान् का
किसी एक को माध्यम बनाकर और उसके सहयोग से दोलोत्सव तथा दमनक से ऋषियों का पूजन होता है।
वाममार्गीय उपचार करके यक्षिणी, डाकिनी, कर्णपिशा
चिनी आदि को सिद्ध करते थे। यह सकाम साधना थी। महिलाएँ कृष्णपत्नी रुक्मिणी का पूजन भी करती हैं तथा सन्ध्या काल में सभी दिशाओं में पञ्चगव्य फेंकती हैं।
इनमें से कुछ निष्काम निर्गुण ब्रह्म के भी उपासक थे, जो
ध्यान द्वारा शून्यता में लीन हो जाते थे। इन सिद्धों में द्वादशी को दमनकोत्सव मनाया जाता है। त्रयोदशी को
नारोपा, तिलोपा, मीनपा, जालन्धरपा आदि प्रसिद्ध हैं। कामदेव की पूजा चम्पा के पुष्पों तथा चन्दन लेप से की
सिद्धों के चमत्कार लोक में प्रचलित थे। सिद्धों ने अपजाती है। चतुर्दशी को नृसिंहदोलोत्सव मनाया जाता है ।
भ्रंश अथवा प्रारम्भिक हिन्दी में अपने प्रिय विषयों पर दमनक पौधे से एकवीर, भैरव तथा शिव की पूजा की
प्रारम्भिक पद्यरचना भी की है। जाती है। पूर्णिमा को मन्वादि, हनुमज्जयन्ती तथा
चोल चूड़ाकरण)-प्रथम मुण्डन या चूड़ाकरण संस्कार को वैशाख स्नानारम्भ किया जाता है।
चौल कहते हैं । यह बालक के जन्म के तीसरे वर्ष अथवा चौरासी पद-राधावल्लभ सम्प्रदाय के संस्थापक गोस्वामी जन्म के एक वर्ष के भीतर किया जाता है । आश्वलायन हरिवंशजी ने तीन ग्रन्थ लिखे थे-'राधासुधानिधि', गृह्यसूत्र ( १.४ ) के अनुसार यह संस्कार शुभ मुहूर्त में 'चौरासी पद' एवं 'स्फुट पद'। चौरासी पद का अन्य विषम वर्ष में होना चाहिए । इसमें ब्राह्मण पुरोहित, नाई नाम 'हित चौरासी' भी है। हरिवंशजी का उपनाम एवं दूसरे सम्बन्धी आमंत्रित किये जाते हैं । बालक माता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org