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च्यवन-छत्र
पिता द्वारा मंडप में लाया जाता है तथा दोनों के बीच वैदिक काल की अपेक्षा कम महत्त्वपूर्ण रह गयी बैठता है। पुरोहित बालक के पिता से संकल्प तथा नवग्रह- है । फिर भी सूर्यपूजा का प्रभाव है । उड़ीसा में पुरी के होम कराता है। पुनः वह बालक के निकट एक वर्गाकार समीप कोणार्क तथा गया में सूर्यमन्दिर है। प्रत्येक चिह्न बनाता तथा लाल मिट्टी से उसे चिह्नित करके उस रविवार को सूर्योपासक मांस, मछली नहीं खाते तथा इस पर चावल छिड़कता है। बालक फिर उस वर्गाकार चिह्न दिन को अति पवित्र मानते हैं । कात्तिक मास के रविवार के पास बैठता तथा नाई उसके केश, अपने अस्तुरे की विहार एवं बंगाल में सूर्योपासना के लिए अति महत्त्वपूर्ण पूजा होने के पश्चात् उतारता है। बीच में केवल वह माने जाते हैं। एक केशसमूह छोड़ देता है जो कभी नहीं काटा जाता सूर्यदेव के सम्मान में विहार में कात्तिक शुक्ल षष्ठी
और जिसे शिखा कहते हैं। उत्सव का अन्त भोज एव के दिन एक पर्व मनाया जाता है। उस दिन सर्योपासक ब्राह्मणों को दान देकर किया जाता है।
लोग व्रत करते हैं तथा अस्त होते हुए सूर्य को अर्घ्य देते __इस संस्कार का प्रयोजन केशपरिष्कार एवं केश अलं- हैं, पुनः दूसरे दिन प्रातः उदय होते हुए सूर्य को अर्घ्य करण है। आयर्वेद में इस बात का उल्लेख है कि जहाँ देते हैं । यह कार्य किसी नदी के जल में या तालाब के
देते हैं । यह कार्य किसी नदी के ज शिखा रखी जाती है उसके नीचे मनुष्यशरीर का मर्म
जल में खड़े होकर स्नानोपरान्त करते हैं। श्वेत पुष्प, स्थल है। अतः उसकी रक्षा के लिए उसके ऊपर केश- चन्दन, सुपारी, चावल, दूध, केला आदि भी सूर्य को समूह का रखना आवश्यक है।
चढ़ाते हैं । पुरोहित के बदले इस पूजा की क्रिया परिवार च्यवन, च्यवान-एक प्राचीन ऋषि के नाम च्यवन एवं का सबसे बड़ा वृद्ध ( विशेष कर बुढ़िया ) करता है। च्यवान है। ऋग्वेद (१.११६.१०-१३;११८,६; कहीं-कहीं मुसलमान भी यह पूजा करते है। ५.७४,५;७.६८,६;७१,५:१०.४९,४) में वे वृद्ध एवं छठी-गृह्यसूत्रों में षष्ठी एक शिशुघातिनी यक्षिणी मानी बलहीन पुरुष के रूप में वर्णित है, जिन्हें अश्विनों ने गयी है। इसको जन्म के छठे दिन तुष्ट करके विदा यौवन तथा बल प्रदान किया। शतपथ ब्राह्मण में कथा किया जाता है तथा शिशु के दीर्घायुष्य की कामना की दूसरे ढंग से दी गयी है। यहाँ च्यवन के शांति की। जाती है। पुत्री सुकन्या से विवाह करने की कथा है। उन्हें भृगु अन्य शुभ रूप में शिशु के जन्म के छठे दिन की रात अथवा आङ्गिरस कहा गया है । जैमिनीय ब्राह्मण में लिखा को माता षष्ठी या छठी माता की पूजा करती है कि भृगु के दूसरे पुत्र विदन्वन्त ने इन्द्र के विरुद्ध च्यवन है तथा जौ के आटे के रोट व चावल चीनी के साथ की सहायता की, जबकि इन्द्र इनसे अश्विनों के प्रति यज्ञ पकाकर देवी को चढ़ाती है । यह प्रथा विशेष कर चमारों करने से रुष्ट था। यह भी उल्लेखनीय है कि शतपथ- में पायी जाती है। दुसाध जाति में भी इस पूजा का ब्राह्मण में सुकन्या के परामर्श पर अश्विनीकुमार यज्ञ में महत्त्व है। वे भी छठी माँ की पूजा करते हैं । छठी की अपना भाग लेने आते हैं। किन्तु इन्द्र और च्यवन में पूजा के पहले पूजा करने वाले उपवास से अपने को समझौता हो गया होगा, जैसा कि ऐतरेय ब्राह्मण के एक पवित्र करते हैं तथा गान करते हुए नदी के तट पर उद्धरण से पता चलता है कि च्यवन ने शर्याति के ऐन्द्र जाते हैं। वहाँ नदी में पूर्व दिशा की ओर मुख करके महाभिषेक का शुभारम्भ कराया था । पञ्चविंश चलते रहते हैं जब तक सूर्योदय नहीं होता है । सूर्योदय के ब्राह्मण ( ११.५,१२,१९.३,६,१४.६,१०,११.८,११ ) में समय वे हाथ जोड़कर खड़े होते हैं तथा रोट व फल सूर्य च्यवन को सामवेद का ऋषि कहा गया है। इन्हों वैदिक को चढ़ाते तथा स्वयं उसे प्रसाद स्वरूप खाते हैं। सन्दर्भो के आधार पर पुराणों में च्यवन-सम्बन्धी कई छत्र-देवताओं के अलङ्करण के लिये जो उपादान काम में कथाएं पायी जाती हैं।
लाये जाते हैं उनमें एक छत्र भी है। यह राजत्व अथवा
अधिकार का द्योतक है। राजपदसूचक उपकरणों में भी छठमाता-कार्तिक शुक्ल षष्ठी को 'छठमाता' कहते हैं और छत्र प्रधान है जो राज्याभिषेक के समय से ही राजा के इस दिन सूर्य की पूजा होती है। आजकल सूर्यपूजा का ऊपर लगाया जाता है। इसीलिए उसकी छत्रपति पदवी
के प्रति
उल्लेखनी
के पर
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