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चामुण्डा तन्त्र-चार्वाक
का एवं वाम देवी का है । देवी के अनेक नामों एवं गुणों है, जिसको लोग आत्मा कहते हैं। शरीर जब विनष्ट हो (दयालु, भयानक, क्रूर एवं अदम्य) से यह प्रतीत होता है जाता है तो चैतन्य भी नष्ट हो जाता है । इस प्रकार कि शिव के समान ये भी अनेक दैवी शक्तियों के संयोग जीव इन भूतों से उत्पन्न होकर इन्ही भूतों में नष्ट हो से बनी हैं।
जाता है । अतः चैतन्यविशिष्ट देह ही आत्मा है । देह से (२) मैसूर (कर्नाटक) में चामुण्डा का प्रसिद्ध मन्दिर है
अतिरिक्त आत्मा होने का कोई प्रमाण नहीं है। उसके जहाँ बहुसंख्यक यात्री पूजा के लिए जाते हैं।
मत से स्त्री-पुत्रादि के आलिङ्गन से उत्पन्न सुख पुरुषार्थ (३) चण्ड और मुण्ड नामक राक्षसों के बध के लिए
है। संसार में खाना, पीना और सुख से रहना दुर्गा से चामुण्डा की उत्पत्ति किस प्रकार हुई, इसका
चाहिए : वर्णन मार्कण्डेयपुराण में इस प्रकार पाया जाता है: अम्बिका यावज्जीवेत् सुखं जीवेद् ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत् । (दुर्गा) के क्रोध से कुञ्चित ललाट से एक काली और भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥ भयंकर देवी उत्पन्न हुई। इसके हाथ में खड्ग और पाश [जब तक जीना चाहिए सुखपूर्वक जीना चाहिए। यदि तथा नरमुण्ड से अलंकृत विशाल गदा थी । वह शुष्क, जीर्ण अपने पास साधन नहीं है तो दूसरों से ऋण लेकर भी तथा भयानक हस्तिचर्म पहने हुए थी। मुख फैला हुआ मौज करना चाहिए। श्मशान में शरीर के जल जाने पर और जिह्वा लपलपाती थी। उसकी आँखें रक्तिम और किसने उसको लौटते गाते
किसने उसको लौटते हुए देखा है ? ] परलोक वा स्वर्ग उसके भयंकर शब्द से आकाश भर रहा था।' इस देवी
आदि का सुख पुरुषार्थ नहीं है, क्योंकि ये प्रत्यक्ष नहीं हैं । ने दोनों राक्षसों का वध करके उनके शिरों को दुर्गा के इसके अनुसार जो लोग परलोक के स्वर्गसुख को अमिश्र सम्मुख अर्पित किया। दुर्गा ने कहा, "तुम दोनों राक्षसों शुद्ध सुख मानते हैं वे आकाश में प्रासाद रचते हैं, क्योंकि के संकुचित समस्त नाम 'चामुण्डा' से प्रसिद्ध होगी।" परलोक तो है ही नहीं। फिर उसका सुख कैसा ? उसे चामुण्डातन्त्र-'आगमतत्त्वविलास' में उद्धृत तन्त्रों में से प्राप्त करने के यज्ञादि उपाय व्यर्थ हैं। वेदादि धूर्तों और एक तन्त्र 'चामुण्डातन्त्र' है। इसमें चामुण्डा के स्वरूप स्वार्थियों की रचनायें हैं ( त्रयो वेदस्य कर्तारः धूर्त-भाण्डतथा पूजाविधि का सविस्तर वर्णन है।
निशाचराः ), जिन्होंने लोगों से धन पाने के लिए ये चारायणीय काठकधर्मसूत्र-कृष्ण यजुर्वेद की एक प्राचीन सब्जबाग दिखाये हैं। यज्ञ में मारा हुआ पशु यदि स्वर्ग शाखा 'चारायणीय काठक' है। इस शाखा के धर्मसूत्र से को जायेगा तो यजमान अपने पिता को ही उस यज्ञ में विष्णुस्मृति के गद्यसूत्रों की सामग्री ली गयी ज्ञात होती क्यों नहीं मारता? मरे हुए प्राणियों की तृप्ति का साधन है। किन्तु कुछ नियम बदले और कुछ नये भी जोड़े यदि श्राद्ध होता है तो विदेश जाने वाले पुरुषों के राहगये हैं।
खर्च के वास्ते वस्तुओं को ले जाना भी व्यर्थ है। यहाँ किसी चार्वाक-नास्तिक ( वेदबाह्य ) दर्शन छः हैं-चार्वाक,
ब्राह्मण को भोजन करा दे या दान दे दे, जहाँ रास्ते में माध्यमिक, योगाचार, सौत्रान्तिक, वैभाषिक एवं आहत ।
आवश्यक होगा वहीं वह वस्तु उसको मिल जायगी। इन सबमें वेद से असम्मत सिद्धान्तों का प्रतिपादन है।
जगत् में मनुष्य प्रायः दृष्ट फल के अनुरागी होते हैं । इनमें से चार्वाक अवैदिक और लोकायत (भौतिकवादी)
नीतिशास्त्र और कामशास्त्र के अनुसार अर्थ व काम को दोनों है।
ही पुरुषार्थ मानते हैं। पारलौकिक सुख को प्रायः नहीं चार्वाक केवल प्रत्यक्षवादी है, वह अनुमान आदि अन्य। मानते । कहते हैं कि किसने परलोक वा वहाँ के सुख को प्रमाणों को नहीं मानता। उसके मत से पृथ्वी, जल, तेज देखा है ? यह सब मनगढन्त बातें हैं, सत्य नहीं हैं । जो और वायु ये चार ही तत्त्व हैं, जिनसे सब कुछ बना है। प्रत्यक्ष है वही सत्य है। इस मत का एक दूसरा नाम, उसके मत में आकाश तत्त्व की स्थिति नहीं है। इन्हीं जैसा कि पहले लिखा जा चुका है, लोकायत भी है। चारों तत्त्वों के मेल से यह देह बनी है। इनके विशेष इसका अर्थ है 'लोक में स्थित'। लोकों-जनों में प्रकार के संयोजन मात्र से देह में चैतन्य उत्पन्न हो जाता आयत फैला हुआ मत ही लोकायत है। अर्थात् अर्थ
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