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चन्द्रहास आगम-वह
चन्द्रहास आगम दे० 'चन्द्रज्ञान आगम' ।
चन्द्रार्घ्यदान - प्रथम दिवस के चन्द्रमा के साथ जब रोहिणी नक्षत्र हो, विशेष रूप से कार्तिक मास में चन्द्रमा को अध्यं देने से विशेष पुष्यों तथा सुखों की उपलब्धि होती है। चन्द्रावती - इसका प्राचीन नाम चन्द्रपुरी है । यह जैन तीर्थ है। जैनाचार्य चन्द्रप्रभ का जन्म यहाँ हुआ था। यह स्थान वाराणसी से १३ मील दूर पड़ता है। यहाँ पहुँचने के लिए पूर्वोत्तर रेलवे के कादीपुर स्टेशन पर उतर कर लगभग चार मील चलना पड़ता है। यहाँ अन्य सम्प्रदाय के हिन्दू भी दर्शनार्थ जाते हैं ।
चन्द्रिका माध्व संप्रदायाचार्य स्वामी जयतीर्थ की दार्शनिक कृति 'तत्त्वप्रकाशिका' की सुप्रसिद्ध टीका । इसके रचयिता स्वामी व्यासतीर्थ १६ वीं शती ई० में हुए थे। चन्द्रिका (२) अनुभूतिस्वरूपाचार्य नामक विद्वान् का रचा हुआ एक संस्कृत व्याकरण । पाणिनिव्याकरण की अपेक्षा यह कुछ सरल है । कहते हैं कि सरस्वती देवी की कृपा से इस ग्रन्थ को उक्त पंडितजी ने एक रात में ही रच दिया था इसलिए इसका 'सारस्वत व्याकरण' नाम पड़ गया ।
चम्पकचतुर्दशी शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को इस व्रत का अनुष्ठान होता है, जब सूर्य वृषभ राशि पर स्थित हो। इसमें शिवजी के पूजन का विधान है। चम्पकद्वादशी – ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें चम्पा के फूलों से भगवान् गोविन्द का पूजन करना चाहिए ।
चम्पाषष्ठी - भाद्र शुक्ल षष्ठी को, जब वैधृति योग, भौमवार तथा विशाखा नक्षत्र भी हो, चम्पापष्ठी कहते हैं। इस दिन उपवास करना चाहिए। इसके सूर्य देवता हैं । मार्गशीर्ष मास की पष्ठी भी चम्पाषष्ठी कही गयी है, जब उस दिन रविवार तथा वैधृति योग हो स्मृतिकौस्तुभ ४३० तथा अहल्याकामधेनु के अनुसार दोनों तिथियाँ ठीक है। मदनरत्न के अनुसार यह मार्गशीर्ष शुक्ल षष्ठी रविवार को पड़ती है जब शतभिषा नक्षत्र हो । प्रायः ३० वर्ष बाद यह योग आता है । कुछ धर्मग्रन्थों के अनुसार इस दिन भगवान् विश्वेश्वर का दर्शन करना चाहिए। निर्णयसिन्धु, पृष्ठ २०९ के अनुसार महाराष्ट्र प्रान्त में मार्गशीर्ष शुक्ल षष्ठी को चम्पाषष्ठी का व्रत किया जाता है।
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चम्पू - पद्य एवं गद्य मिश्रित संस्कृत काव्य रचना | १७वीं शती के मध्य शिवगुण योगी ने विवेकचिन्तामणि नामक एक चम्पू की रचना की । यह वीरशैव सम्प्रदाय से सम्बन्धित ग्रन्थ है । संस्कृत साहित्य में रामायणचम्पू, नलचम्पू, गोपालचम्पू, वृन्दावनचम्पू आदि उच्च कोटि के सरस और धार्मिक काव्य हैं ।
चम्बा - एक वैष्णव तीर्थ | हिमाचल प्रदेश में यह भूतपूर्व रियासत है, जो डलहौजी से २० मील दूर रावी नदी के तट पर बसी हुई है । नगर में लक्ष्मीनारायण का मन्दिर है । यहाँ भगवान् नारायण की श्वेत संगमरमर की प्रतिमा अति विशाल तथा कलापूर्ण है ।
चमस - एक पात्र, जो यज्ञों के अवसर पर सोमरस वितरण के काम आता था। यह घृत की आहूति देने में भी प्रयुक्त होता है। यह पवित्र काष्ठ, उम्बर, खदिर आदि से बनता है ।
चरक - ( १ ) सर्वप्रथम इसका अर्थ भ्रमणशील विद्वान् अथवा विद्यार्थी था, जैसा बृहदारण्यकोपनिषद् में इस शब्द का प्रयोग हुआ है। इस नाम से विशेषतया कृष्ण यजुर्वेद की एक शाखा का बोध होता है।
(२) महाराज कनिष्क के समकालीन वैद्य चरक थे, जिनके द्वारा 'चरकसंहिता' की रचना हुई।
चरक शाखा – कृष्ण यजुर्वेद की शाखाओं में अकेले चरक सम्प्रदाय की ही बारह शाखाएँ थीं । चरक, आह्वरक, कठ, प्राच्य कठ, कपिष्ठल कठ, आष्ठल कठ, चारायणीय, वारायणीय वार्त्तान्तरेय, श्वेताश्वतर, औपमन्यव और मैत्रायण । चरक शाखा के पहले तीन भागों के नाम ईथिमिका, मध्यमिका और अरिमिका है। चरणपादुकातीर्थ-बदरीनाथ मन्दिर के पीछे पर्वत पर सीधे चढ़ने पर चरणपादुका नामक स्थान आता है । यहीं से नल लगाकर बदरीनाथ पुरी और मन्दिर में जल लाया जाता है । यह जल भगवान् के चरणोदक के समान पवित्र माना जाता है। भारत के अन्य स्थानों में भी भगवान् देवता एवं ऋषि-मुनियों को चरणपादुकायें ( पदचिह्न) विद्यमान हैं । दत्तात्रेय की चरणपादुकायें काशी के मणिकर्णिका घाट और गिरनार पर्वत पर स्थित हैं। चर - चावल, यब, माय आदि से दूध में पकाकर बने हुए हविष्य को 'चरु' कहते हैं, जो देवताओं तथा पितरों को अर्पित किया जाता है।
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