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चण्डिकावग-चतुर्वर्गचिन्तामणि
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चारों ओर छिड़कते हैं। इस पूजाविधि के मध्य में हठयोग के चौरासी (चतुरशीति ) आसनों का विवरण पुरोहित केवल फल-मूल ही ग्रहण करता है। पूजा का पाया जाता है। अन्त अग्नि में यज्ञ (होम) से होता है, जिसमें जौ, चीनी, चतुर्थीवत-गणेश चतुर्थी, गौरीचतुर्थी, नागचतुर्थी, स्कन्दघृत एवं तिल का व्यवहार होता है। यह हवन घट के चतुर्थी तथा बहुला चतुर्थी के अतिरिक्त इस चतुर्थीव्रत सामने होता है, जिसमें देवी का वास समझा जाता है। का विधान है । इसके लिए पञ्चमी से विद्ध चतुर्थी होनी यज्ञ की राख एवं कलश की लाल धूलि पुजारी यजमान चाहिए । लगभग २५ व्रत ऐसे हैं जो चतुर्थी के दिन होते के घर लाता है तथा उनके सदस्यों के ललाट पर लगाता हैं । यमस्मृति के अनुसार यदि चतुर्थी तिथि शनिवार को है और इस प्रकार वे देवी के साथ एकाकारता प्राप्त करते पड़े तथा उसी दिन भरणी नक्षत्र हो तो उस दिन स्नान हैं । भारत के विभिन्न भागों में चण्डी की पूजा प्रायः तथा दान से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है । चतुर्थी तीन इसी प्रकार से होती है ।
प्रकार की होती है-शिवा, शान्ता तथा सुखा ( भविष्य चण्डिकावत-कृष्ण तथा शुक्ल पक्षों की नवमी को इस
पुराण ३१.१-१०)। वे क्रमशः हैं भाद्रपद शुक्ल पक्ष की व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। एक वर्ष तक इसका
चतुर्थी, माघ कृष्ण की चतुर्थी तथा भौमवासरीय चतुर्थी । आचरण होना चाहिए। इसमें चण्डिका के पूजन का
चतुर्थीजागरण व्रत-कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को इस व्रत का विधान है । इस दिन उपवास करना चाहिए ।
अनुष्ठान होता है । पाँच अथवा बारह वर्ष तक इसका
आचरण करना चाहिए। शिवजी का घृत स्नान कराते हुए चण्डीवास-बङ्गाल में चण्डीदास भगवद्भक्त कवि हो गये
पूजन करना चाहिए । असंख्य कलशों से स्नान कराने हैं। बँगला में इनके रचे भक्तिरसपूर्ण भजन तथा कीर्तन बहुत व्यापक और प्रचलित हैं। इनका जीवनकाल लग
का विधान है । कलश सौ तक हो सकते हैं । इसके अतिभग १३८० से १४२० ई० तक माना जाता है । बँगला
रिक्त षोडशोपचार पूजन पूर्वक रात्रि में जागरण करना भाषा में राधा-कृष्ण विषयक अनेक सुन्दर भजन इनके
चाहिए । इससे व्रती को दिव्यानन्दों की उपलब्धि तथा
मोक्ष की प्राप्ति होती है। रचे हुए पाये जाते हैं।
चतुर्दशीव्रत-धर्मग्रन्थों में लगभग तीस चतुर्दशीव्रतों का चण्डीमङ्गल-मुकुन्दराम द्वारा बँगला में लिखित 'चण्डी
उल्लेख मिलता है। कृत्यकल्पतरु केवल एक व्रत का मङ्गल' चण्डीपूजा की एक काव्यमय पद्धति देता है । यह
उल्लेख करता है और वह है शिवचतुर्दशी।। शाक्तों में बहुत प्रचलित है ।
चतुर्दश्यष्टमी-मास के दोनों पक्षों की अष्टमी तथा चतुचण्डीमाहात्म्य-चण्डीमाहात्म्य को देवीमाहात्म्य भी कहते र्दशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें भोजन है । हरिवंश के कुछ श्लोकों एवं मार्कण्डेयपुराण के एक नक्त पद्धति से करना चाहिए। एक वर्ष तक इसका अंश से यह माहात्म्य गठित है । इसका रचना काल छठी आचरण होता है । इसमें शिवपूजन का विधान है। शताब्दी है, क्योंकि बाणरचित चण्डीशतक इसी ग्रन्थ पर चतुर्मतिव्रत-विष्णुधर्मोत्तरपुराण के तृतीय अध्याय, श्लोक आधारित है। चण्डीमाहात्म्य के अनेक अनुवाद तथा १३७-१५१ में १५ चतुर्मति व्रतों का उल्लेख है । हेमाद्रि, इस पर आधारित अनेक भजन बँगला शाक्तों द्वारा लिखे व्रतखण्ड १.५०५ में भी कुछ वर्णन मिलता है । गये हैं।
चतुर्युगवत-चैत्र मास के प्रथम चार दिनों में चारों चण्डीशतक-बाणभट्ट द्वारा रचित चण्डीशतक सातवीं युगों-कृत, त्रेता, द्वापर तथा तिष्य ( कलि ) का पूजन शताब्दी के पूर्वाध का साहित्यिक ग्रन्थ है । यह 'चण्डी
होता है । एक वर्ष तक अनुवर्ती मासों में भी इन्हीं माहात्म्य' पर आधारित है। इसमें देवो की स्तुति १०० तिथियों में इस व्रत का आचरण करना चाहिए । इसमें श्लोकों में हुई है । विविध भारतीय भाषाओं में इसका केवल दुग्धाहार का विधान है। अनुवाद हुआ है।
चतुर्वर्गचिन्तामणि-धर्मशास्त्र का विख्यात निबन्ध ग्रन्थ । चतुरशीत्यासन-यह ग्रन्थ गोरखनाथप्रणीत है तथा नागरी हेमाद्रि तेरहवीं शती के अन्त में यादव ( महाराष्ट्र के ) प्रचारणी सभा काशी की खोज से प्राप्त हुआ है। इसमें राजाओं के मंत्री थे। उन्होंने धर्मशास्त्रीय विषयों का एक
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