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चक्रधरचरित-चण्डी (चण्डिका)
१३०९ ई०) के समकालीन नागदेव भट्ट एवं ज्ञानेश्वरी के रचयिता ज्ञानेश्वर हुए । इनका परवर्ती इतिहास अज्ञात है। इनका वैष्णवमत बड़ा उदार था। इसमें जाति अथवा वर्णभेद नहीं माना जाता था। इसलिए रूढ़िवादियों द्वारा इस मत का तीव्र विरोध हुआ। चक्रधर करहाद ब्राह्मण थे तथा मानभाऊ (सं० महानुभाव) सम्प्रदाय वाले इन्हें अपने देवता दत्तात्रेय का अवतार मानते हैं । चक्रधरचरित-यह मानभाऊ (सं० महानुभाव) सम्प्रदाय का
एक ग्रन्थ है जो मराठी भाषा में लिखा गया है । सम्प्रदाय ' के संस्थापक के जीवनचरित का विवरण इसमें पाया
जाता है। चक्रपूजा-दे० 'चक्र'। चक्रवर्ती-(१) जिस राजा का (रथ) चक्र समुद्रपर्यन्त चलता था, उसको चक्रवर्ती कहते थे। उसको अश्वमेध अथवा राजसूय यज्ञ करने का अधिकार होता था। भारत के प्राचीन साहित्य में ऐसे राजाओं की कई सूचियाँ पायी जाती है। मान्धाता और ययाति प्रथम चक्रवतियों में से थे । समस्त भारत को एक शासनसूत्र में बाँधना इनका प्रमुख आदर्श होता था।
(२) शास्त्रों में प्रकाण्ड योग्यता प्राप्त करने पर विद्वानों को भी यह उपाधि दी जाती थी। चक्रवाक-चकवा नामक एक पक्षी । यह नाम ध्वन्यात्मक है। इसका उल्लेख ऋग्वेद एवं यजुर्वेद में अश्वमेध के बलिपशुओं की तालिका में आता है। अथर्ववेद एवं परवर्ती साहित्य में सच्चे दाम्पत्य का उदाहरण इससे दिया गया है। चक्रायुध (चक्री)-विष्णु का पर्याय । इसका अर्थ है 'चक्र है आयुध (अस्त्र) जिसका।' मूर्तिकला में विष्णु के आयुधों का आयुधपुरुष के रूप में अंकन हुआ है। चक्रोल्लास-आचार्य रामानुज कृत एक ग्रन्थ । विशिष्टाद्वैत
सम्प्रदाय में इसका बड़ा आदर है। चक्षुर्वत-नेत्रव्रत के समान इस व्रत में चैत्र शुक्ल द्वितीया को अश्विनीकुमारों (देवताओं के वैद्य) की पूजा की जाती है, एक वर्ष तक अथवा बारह वर्ष तक । उस दिन व्रती को दधि अथवा घृत का आहार करना चाहिए। इस व्रत के आचरण से व्रती के नेत्र अच्छे रहते हैं और बारह वर्ष तक व्रत करने से वह राजयोगी बन जाता है।
चण्डमारुत-श्रीवैष्णव संप्रदाय का एक तार्किक ग्रन्थ, जिसके रचयिता चण्डमारुताचार्य थे। यह ग्रन्थ 'शतदूषणी' नामक ग्रन्थ का व्याख्यान है । चण्डमारुताचार्य को दोद्दयाचार्य रामानुजदास भी कहते हैं। चण्डमारुतटीका-दे० 'चण्डमारुत' । चण्डमारुत महाचार्य-विशिष्टाद्वैत सम्बन्धी 'चण्डमारुत' नामक टीका के रचयिता। यह टीका वेदान्तदेशिकाचार्य वेङ्कटनाथ की 'शतदूषणी' के ऊपर रचित है। चण्डा-भयंकर अथवा क्रुद्ध । यह दुर्गा का एक विरुद है। असुरदलन में दुर्गा यह रूप धारण करती है। चण्डाल (चाण्डाल)-वर्णसंकर जातियों में से निम्न कोटि की एक जाति । चण्डाल शूद्र पिता और ब्राह्मण माता से उत्पन्न माना जाता है। परन्तु वास्तव में यह अन्त्यज जाति है जिसका सभ्य समाज के साथ पूरा सपिण्डीकरण नहीं हुआ । अतः यह बस्तियों के बाहर रहती और नगर के कूड़े-कर्कट, मल-मूत्र आदि साफ करती है । इसमें भक्ष्याभक्ष्य और शुचिता का विचार नहीं है। चण्डालों की घोर आकृति, कृष्ण वर्ण और लाल नेत्रों का वर्णन साहित्यिक ग्रन्थों में पाया जाता है। मृत्युदण्ड में अपराधी का बध इन्हीं के द्वारा होता था। चण्डी (चण्डिका)-दुर्गा देवी। काली के समान ही दुर्गा देवी का सम्प्रदाय है। वे कभी-कभी दयालु रूप में एवं प्रायः उग्र रूप में पूजी जाती हैं । दयालु रूप में वे उमा, गौरी, पार्वती अथवा हैमवती, जगन्माता तथा भवानी कहलाती हैं; भयावने रूप में वे दुर्गा, काली अथवा श्यामा, चण्डी अथवा चण्डिका, भैरवी आदि कहलाती हैं । आश्विन और चैत्र के नवरात्र में दुर्गापूजा विशेष समारोह से मनायी जाती है । देवी की अवतारणा मिट्टी के एक कलश में की जाती है । मन्दिर के मध्य का स्थान गोबर व मिट्टी से लीपकर पवित्र बनाया जाता है। घट में पानी भरकर, आम्रपल्लव से ढककर उसके ऊपर मिट्टी का ही एक ढकना, जिसमें जौ और चावल भरा रहता है तथा जो एक पीले वस्त्र से ढका होता है, रखा जाता है । पुरोहित मन्त्रोचारण करता हुआ, कुश से जल उठाकर कलश पर तथा उसके उपादानों पर छिड़कता है तथा देवी का आवाहन घट में करता है । उनके आगमन को मान्यता देते हुए एक प्रकार की लाल-धूलि (रोली) घट के बाहर
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