________________
२५६
घटयोनि-घंटाकर्ण
घटयोनि-अगस्त्य या कुम्भज ऋषि । पुरा कथा के अनुसार को घृत तथा मधु का भोजन, एक प्रस्थ तिल (आढक का अगस्त्य का जन्म कुम्भ अथवा घट से हुआ था। इसलिए चौथाई) तथा दो प्रस्थ धान का दान करना चाहिए।
उनको कुम्भज अथवा घटयोनि कहते हैं । दे० 'अगस्त्य' । घृतस्नापनविधि-इस व्रत में ग्रहण के दिन अथवा पौष में धर्म-यज्ञीय पात्र, जो एक तरह की बटलोई जैसा होता किसी भी पवित्र दिन शिवपूजा का विधान है । एक रात
था । ऋग्वेद तथा वाज० सं०, ऐ० ब्रा० इत्यादि में 'धर्म' तथा एक दिन शिवमूर्ति के ऊपर घृत की अनवरत धारा से उस पात्र का बोध होता है जिसमें दूध गर्म किया जाता पड़नी चाहिए। रात्रि को नृत्य-गान करते हुए जागरण था, विशेषकर अश्विनौ को देने के लिए। अतएव इस रखना चाहिए। शब्द से गर्म दूध एवं किसी गर्म पेय का भी अर्थ प्रायः घृताची-सरस्वती का एक पर्याय । एक अप्सरा का भी लगाया जाने लगा।
यह नाम है। इन्द्रसभा की अप्सराओं में इसकी गणना घृत-यज्ञ की सामग्री में से एक मुख्य पदार्थ । अग्नि में है। इसने कई ऋषियों तथा राजाओं को पथभ्रष्ट किया । इसकी स्वतन्त्र आहुति दी जाती है। हवन कर्म में सर्व- पौर वंश के कशनाभ अथवा रौद्राश्व के द्वारा इसके दस पुत्र प्रथम 'आधार' एवं 'आज्यभाग' आहुतियों के नाम से
हुए। ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार कई वर्णसंकर जातियों अग्नि में घृत टपकाने का विधान है। साफ किये हुए ___के पूर्वज इससे विश्वकर्मा के द्वारा उत्पन्न हुए थे । हरिमक्खन का उल्लेख ऋग्वेद में यज्ञ-उपादान घृत के अर्थ में वंश के अनुसार कूशनाभ से इसके दस पुत्र तथा दस हुआ है। ऐतरेय ब्राह्मण के भाष्य में सायण ने घृत एवं कन्याएं उत्पन्न हुई थीं। सर्पि का अन्तर करते हुए कहा है कि सर्पि पिघलाया
दूसरी कथा के अनुसार कुशनाभ से इसकी एक सौ हुआ मक्खन है, और घृत जमा हुआ (घनीभूत) मक्खन
कन्याएँ उत्पन्न हुई। वायु उनको स्वर्ग में ले जाना चाहते है। किन्तु यह अन्तर उचित नहीं जान पड़ता, क्योंकि
थे, परन्तु उन्होंने जाना अस्वीकार कर दिया । वायु के मक्खन अग्नि में डाला जाता था। अग्नि को 'घृतप्रतीक',
शाप से उनका रूप विकृत (कुबड़ा) हो गया। परन्तु पुनः 'घृतपृष्ठ', 'घृतप्रसह' एवं 'घृतप्री' कहा गया है। जल
उन्होंने अपना स्वाभाविक रूप प्राप्त करके काम्पिल के का व्यवहार मक्खन को शुद्ध करने के लिए होता था,
राजा ब्रह्मदत्त से विवाह किया। कूबड़ी कन्याओं के नाम एतदर्थ उसे 'धृतपू' कहा जाता था। ऐतरेय ब्राह्मण में
पर ही उस देश का नाम 'कन्याकुब्ज' कान्यकुब्ज हो गया । आज्य, घृत, आयुत तथा नवनीत को क्रमशः देवता, मानव,
घंटाकर्ण-पाशुपत सम्प्रदाय के एक आचार्य । शव परम्परा पितृ एवं शिशु का प्रतीक माना गया है। श्रौतसूत्रों,
के पौराणिक साहित्य से पता लगता है कि अगस्त्य, गृह्यसूत्रों, स्मृतियों तथा पद्धतियों में घृत के उपयोग का
दधीचि, विश्वामित्र, शतानन्द, दुर्वासा, गौतम, ऋष्यशृङ्ग, विस्तृत वर्णन पाया जाता है।
उपमन्यु एवं व्यास आदि महर्षि शैव थे । व्यासजी के घृतकम्बल-माघ शुक्ल चतुर्दशी को इस व्रत का अनुष्ठान लिए कहा जाता है कि उन्होंने केदारक्षेत्र में 'घण्टाकर्ण' होता है। इसमें उपवास करने का विधान है। पूर्णिमा
सम उपवास करन का विधान है। पूर्णिमा से पाशुपत दीक्षा ली थी, जिनके साथ बाद में वे काशी में को एक स्थूल कम्बल के समान जमा हुआ घृत शिव मूर्ति रहने लगे। व्यासकाशी में घंटाकर्ण तालाब वर्तमान है । पर वेदी पर्यन्त लपेटा जाना चाहिए । तदनन्तर कृष्ण वर्ण वहीं घंटाकर्ण की मूर्ति भी हाथ में शिवलिङ्ग धारण किये वाले साँड़ों का जोड़ा दान करना चाहिए । इसके परिणाम- विराजमान है। वर्तमान काशी के नीचीबाग मुहल्ले में स्वरूप व्रती असंख्य वर्षों तक शिवलोक में वास करता
___घंटाकर्ण (कर्णघण्टा) का तालाब है और उसके । है। यह शान्तिकर्म भी है । इसके अनुसार व्रती को एक व्यासजी का मन्दिर है । मुहल्ले का नाम भी 'कर्णघंटा' है । वस्त्र उढ़ाकर उसका घी से अभिषिञ्चन करना चाहिए। कहा गया है कि घंटाकर्ण इतने कट्टर शिवभक्त थे कि दे० आथर्वण परिशिष्ट, अड़तीसवाँ भाग, २०४-२१२; शंकर के नाम के अतिरिक्त कान में दूसरा शब्द पड़ते ही राजनीतिप्रकाश (वीरमित्रोदय), पष्ठ ४५९-४६४। सिर हिला देते थे जहाँ कानों के पास दो घण्टे लटके घृतभाजनव्रत-पूर्णिमा के दिन इस व्रत का अनुष्ठान होता रहते थे। घण्टों की ध्वनि में दूसरा शब्द विलीन हो है। शिवजी की पूजा इस व्रत में की जाती है। ब्राह्मण जाता था।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org