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गोपी
रूप से विष्णु का सम्बन्ध, चाहे प्रतीकात्मक ही क्यों न हो, गो, गोप और गोपियों से जोड़ते हैं । यहाँ पर गो, गोप आदि शब्द यौगिक हैं, व्यक्तिवाचक अथवा जातिवाचक नहीं । इनका सम्बन्ध है गमन, विक्रम, समृद्धि, माधुर्य और आनन्द से। इसी मूल वैदिक कल्पना के आधार पर वैष्णव साहित्य में कृष्ण के गोपस्वरूप, उनके गोपसखा, गोपी, गोपी भाव की सारी कल्पनाएँ और भावनाएँ विकसित हुईं। यह कहना कि कृष्ण का मूलतः सम्बन्ध केवल गोप-प्रजाति से था, वैष्णव धर्म के इतिहास को बीच में खण्डित रूप से देखना है। हाँ, यह कहना ठीक है कि विष्णु का गोप रूप गोचारण करने वाले गोपों और गोपियों में अधिक लोकप्रिय हुआ ।
महाभारत में कृष्ण और विष्णु का ऐक्य तो स्थापित हो गया था, परन्तु उसमें कृष्ण की बाललीला की चर्चा न होने से गोपियों का कोई प्रसंग नहीं है । किन्तु पुराणों में गोप-गोपियों का वर्णन (रूपकात्मक) मिलना प्रारम्भ हो जाता है। भागवत ( १०.१.२३ ) पुराण में तो स्पष्ट कथन है कि गोपियाँ देवपत्नियाँ थीं, भगवान् कृष्ण का अनुरञ्जन करने के लिए वे गोपी रूप में अवतरित हुई । ब्रह्मवैवर्त और पद्मपुराण में गोपीकल्पना और गोपी भावना का प्रचुर विस्तार हुआ है। इनमें गोलोक, नित्य वृन्दावन, नित्य रासक्रीडा, कृष्ण के ब्रह्मत्व, राधा की आह्लादिका शक्ति आदि का सरहस्य वर्णन पाया जाता है ।
मध्ययुगीन कृष्णभक्त सन्तों ने गोपीभाव को और अधिक प्रोत्साहन दिया और गोपियों की अनन्त कल्पनाएँ हुईं। सनकादि अथवा हंस सम्प्रदाय के आचार्य निम्बार्क ने गोपीभाव की दार्शनिक तथा रहस्यात्मक व्याख्या की है । इनके अनुसार कृष्ण ब्रह्म हैं। इनकी दो शक्तियाँ हैं(१) ऐश्वर्य और ( २ ) माधुर्य । उनकी ऐश्वर्यशक्ति में रमा, लक्ष्मी, भू आदि की गणना है। उनकी माधुर्य शक्ति में राधा तथा अन्य गोपियों की गणना है । गोपियाँ कृष्ण की ह्लादिनी शक्ति हैं । निम्बार्क ने कहा :
अङ्ग े तु वामे वृषभानुजां मुदा विराजमानामनुरूपसौभगाम् । सखी सहस्रैः परिसेवितां सदा स्मरेम देवीं सकलेष्टकामदाम् ॥
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( दशश्लोकी)
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स्पष्टतः यहाँ राधा की कल्पना शक्तिरूप में हुई है ।
गौडीय वैष्णव (चैतन्य) सम्प्रदाय के द्वारा गोपीभाव का सबसे अधिक विस्तार और प्रसार हुआ | पुष्टिमार्ग ने इसे और पुष्ट किया । इन दोनों सम्प्रदायों के अनुसार गोपियाँ भगवान् कृष्ण की ह्लादिनी शक्ति हैं । लीला में कृष्ण के साथ उनका प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों रूपों में नित्य साहचर्य है । वृन्दावन की प्रत्यक्ष रासलीला में वे भगवान् की गुह्लादिनी शक्ति का प्रवर्तन करती हैं । वे नित्यसिद्धा मानी गयी हैं। चैतन्य मत के आचार्यों ने गोपियों का सूक्ष्म किन्तु विस्तृत वर्गीकरण किया है । दे० रूप गोस्वामीकृत 'उज्ज्वलनीलमणि', कृष्णवल्लभा अध्याय । गोपियों के स्वरूप और नाम के विषय में अन्यत्र भी कथन है :
गोप्यस्तु श्रुतयो ज्ञेयाः स्वाधिजा गोपकन्यका । देवकन्याश्च राजेन्द्र न मानुष्यः कथञ्चन ॥
[ गोपियों को श्रुति (वेद अथवा मधुस्वर ) समझना चाहिए | ये गोपकन्यका अपनी अधिष्ठान शक्ति से उत्पन्न हुई हैं । हे राजेन्द्र ! ये देवकन्याएँ हैं; किसी प्रकार ये मानुषी नहीं हैं । ] ब्रजबाला के रूप में इनके निम्नांकित नाम हैं : पूर्णरसा, रसमन्थरा, रसालया, रससुन्दरी, रसपीयूषधामा, रसतरङ्गिणी, रसकल्लोलिनी, रसवापिका, अनङ्गमञ्जरी, अनङ्गमानिनी, मदयन्ती, रङ्गविह्वला, ललितयौवना, अनङ्गकुसुमा, मदनमञ्जरी, कलावती, ललिता, रतिकला, कलकण्ठी आदि ।
श्रुतिगण के रूप में इनके निम्नलिखित नाम हैं : उद्गीता, रसगीता, कलगीता, कलस्वरा, कलकण्ठिता, विपञ्ची, कलपदा, बहुमता, कर्मसुनिष्ठा, बहुहरि, बहुशाखा, विशाखा, सुप्रयोगतमा, विप्रयोगा, बहुप्रयोगा, बहुकला, कलावती, क्रियावती आदि ।
मुनिगण के रूप में गोपियों के नाम अधोलिखित हैं :
उग्रतपा, सुतपा, प्रियव्रता, सुरता, सुरेखा, सुयर्वा, बहुप्रदा, रत्नरेखा, मणिग्रीवा, अपर्णा, सुपर्णा, मत्ता, सुलक्षणा, मुदती, गुणवती, सौकालिनी, सुलोचना, सुमना, सुभद्रा, सुशीला, सुरभि, सुखदायिका आदि ।
गोपबालाओं के रूप में उनकी संज्ञा नीचे लिखे प्रकार की है :
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