________________
२४६
गोपीचन्दन-गोमती
चन्द्रावली, चन्द्रिका, काञ्चनमाला, रुक्ममाला, गोभिलगृह्यसूत्र-इस गृह्यसूत्र में चार प्रपाठक है । कात्याचन्द्रानना, चन्द्ररेखा, चान्द्रवापी, चन्द्रमाला, चन्द्रप्रभा, यन ने इस पर एक परिशिष्ट लिखा है। गोभिलगृह्यसूत्र चन्द्र कला, सौवर्णमाला, मणिमालिका, वर्णप्रभा, शुद्ध सामवेद की कौथुमी शाखा वालों और राणायनी शाखा काञ्चनसन्निभा, मालती, यूथी, वासन्ती, नवमल्लिका, वालों का है। इसका अंग्रेजी अनुवाद ओल्डेनवर्ग ने प्रस्तुत मल्ली, नवमल्ली, शेफालिका, सौगन्धिका, कस्तूरी, किया है। दे० सेक्रेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट, जिल्द ३० । पद्मिनी, कुमुद्वती, गोपाली, रसाला, सुरसा, मधुमञ्जरी, इस पर अनेक संस्कृतभाष्य लिखे गये हैं, यथा भट्टनारायण रम्भा, उर्वशी, सुरेखा, स्वर्णरेखिका, वसन्ततिलका आदि। का भाष्य (रघुनन्दन के 'श्राद्धतत्त्व' में उद्धृत); यशोधर दे० पद्मपुराण, पातालखण्ड ।
का भाष्य (गोविन्दानन्द की 'क्रियाकौमुदी' में उद्धृत); गोपीचन्दन-यह एक प्रकार की मिट्टी है जो द्वारका के सरला नाम की टीका ('श्राद्धतत्त्व' में उद्धृत)। पास गोपीतालाब में मिलती है। कहा जाता है कि यह
इसमें गृहस्थजीवन से सम्बद्ध सभी धार्मिक क्रियाओं गोपियों की अंगधूलि है जहाँ उन्होंने कृष्ण के स्वरूप में की विधि सविस्तर वर्णित है। गृह्ययज्ञों में सात मुख्य हैं, अपने को लीन कर दिया था। गोपीचन्दन से बनाया यथा पितृयज्ञ, पार्वणयज्ञ, अष्टकायज्ञ, श्रावणीयज्ञ, आश्वहुआ 'ऊर्द्धपुण्ड्र' तिलक भागवत सम्प्रदाय का चिह्न है । युजीयज्ञ, आग्रहायणीयज्ञ तथा चैत्रीयज्ञ । इनके अतिरिक्त इसको धारण करनेवाले गोपीभाव की उपासना करते हैं। पाँच नित्य महायज्ञ है, यथा ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, गोपीचन्दन उपनिषद्-वासुदेव तथा गोपीचन्दन-उपनिषद्
अतिथियज्ञ तथा भूतयज्ञ। जिन शरीरसंस्कारों का वर्णन वैष्णवों के परवर्ती युग की रचनायें हैं। दोनों में गोपी
इसमें है, उनकी सूची इस प्रकार है-१. गर्भाधान
२. पुंसवन ३. सीमन्तोन्नयन ४. जातकर्म ५. नामकरण चन्दन से ललाट पर ऊर्द्धपुण्ड्र लगाने का निर्देश है । इनमें गोपीचन्दन और गोपीभाव का तात्त्विक विवेचन
६. निष्क्रमण ७. चूडाकर्म ८. उपनयन ९. वेदारम्भ किया गया है।
१०. केशान्त ११. समावर्तन १२. विवाह १३. अन्त्येष्टि
आदि। गोपीचंद्रनाथ-नाथ सम्प्रदाय के नौ नाथों में से अन्तिम गोपीचन्द्रनाथ थे। गुरु गोरखनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, भर्तनाथ,
गोभिलस्मृति-कात्यायन के 'कर्मप्रदीप' से यह अभिन्न है । गोपीचन्द्रनाथ, सभी अब तक जीवित एवं अमर समझे ।
दे० आनन्दाश्रम स्मृतिसंग्रह, पृ० ४९-७१ । कर्मप्रदीप ही जाते हैं। कहते हैं कि साधकों को कभी-कभी इनके दर्शन
गोभिलस्मृति के नाम से उद्धृत होता है। इसकी प्रस्ताभी हो जाते हैं। इन योगियों को चिरजीवन ही नहीं
वना में कहा गया है : प्राप्त है, इन्हें चिरयौवन भी प्राप्त है। ये योगबल से
अथातो गोभिलोक्तानामन्येषां चैव कर्मणाम् । नित्य किशोर रूप या सनकादिक की तरह बालरूप में
अस्पष्टानां विधिं सभ्यग्दर्शयिष्ये प्रदीपवत् ॥ रहते हैं। गोपीचन्द (गोपीचन्द्रनाथ) के गीत आज भी
इसके मुख्य विषय हैं-यज्ञोपवीतधारण विधि, आचभिक्षुक योगी गाते फिरते हैं।
मन और अङ्गस्पर्श, गणेश तथा मातृका पूजन, कुश,
श्राद्ध, अग्न्याधान, अरणि, स्रक्, स्रुव, दन्तधावन, स्नान, गोपुर-धार्मिक भवनों का एक अङ्ग। मन्दिरप्राकार के
प्राणायाम, मन्त्रोच्चारण, देव-पितृ-तर्पण, पञ्चमहायज्ञ, मुख्य द्वारशिखर को गोपुर कहते हैं। इसकी व्युत्पत्ति है श्राद्धकर्म, अशौच, पत्नीधर्म, श्राद्ध के प्रकार आदि । 'गोपन अर्थात् रक्षण करता है जो' (गोपायति रक्षति इति)।
गोभिलीय श्राद्धकल्प-यह रघुनन्दन के 'श्राद्धतत्त्व' में उद्महाभारत (१.२०८.३१) में एक विशाल गोपुर का
धृत है । महायशस् ने इसकी टीका की है, जिसका दूसरा उल्लेख पाया जाता है :
नाम यशोधर भी है । इसके दूसरे टीकाकार समुद्रकर भी द्विपक्षगरुडप्रख्यारैः सौधश्च शोभितम् ।
हैं, जिनका उल्लेख भवदेवकृत 'श्राद्धकला' में हुआ है। गुप्तमभ्रचयप्रख्यैर्गोपुरैर्मन्दरोपमैः ।।
गोमती-ऋग्वेद के दसवें मण्डल के 'नदीसक्त' में एक नदी दक्षिण के द्राविड शैली के मन्दिरों में बृहत्काय गोपुर के रूप में उद्धृत । उक्त ऋचा में इसका सिन्धु की सहापाये जाते हैं।
यक नदी के रूप में उल्लेख हुआ है । सिन्धु में पश्चिम से
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org