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गोविन्दाणव-गोस्वामी
पुत्र थे । इन्होंने ही 'खालसा' दल की स्थापना ( १६९० में जो श्लोक लिखा है उसके एक पद के साथ ब्रह्मानन्द ई० में) की तथा पञ्च 'ककार' ( केश, कंघा, कड़ा, कच्छ सरस्वती कृत 'लघुचन्द्रिका' की समाप्ति के एक श्लोक का तथा कृपाण ) धारण करने की प्रथा चलायी । इनके
कुछ सादृश्य देखा जाता है। इन दोनों से सिद्ध होता है समय में सिक्ख सम्प्रदाय सैनिक जत्थे के रूप में संग- कि गोविन्दानन्द तथा ब्रह्मानन्द के विद्यागुरु श्री शिवराम ठित हो गया। गोविन्दसिंह ने गुरुप्रथा को समाप्त कर थे। इससे इन दोनों का समकालीन होना भी सिद्ध होता दिया, जो नानक के काल से चली आ रही थी। दे० है। ब्रह्मानन्द मधुसुदन सरस्वती के समकालीन थे । अतः 'प्रथ साहब'।
गोविन्दानन्द का स्थितिकाल भी सत्रहवीं शताब्दी होना हिन्दू धर्म की रक्षा, प्रतिष्ठा और उद्धार के लिए।
चाहिये। विगत गुरुओं के समान ही दृढ़ संगठन बनाकर ये आजी- गोविन्दानन्द सरस्वती-योगदर्शन के एक आचार्य। इनके वन मुगलों से मोर्चा लेते रहे । अन्त तक इन्होंने भारी
शिष्य रामानन्द सरस्वती (१६वीं शती के अंत ) ने त्याग, बलिदान और संघर्ष झेलते हुए अध्यात्म वृत्ति को पतञ्जलि के योगसूत्र पर 'मणिप्रभा' नामक टीका लिखी। भी परिनिष्ठित किया। इनकी काव्यरचना ओजस्वी
नारायण सरस्वती इनके दूसरे शिष्य थे, जिन्होंने १५९२ और कोमल, दोनों रूपों में मिलती है।
ई० में एक ग्रन्थ (योग विषयक) लिखा। इनके शिष्यों के गोविन्वार्णव-एक धर्मशास्त्रीय निबन्धग्रन्थ । इसकी रचना काल को देखते हुए अनुमान किया जा सकता है कि ये काशी के राजा गोविन्दचन्द्र गहडवाल के प्रश्रय में राम- अवश्य १६वीं शती के प्रारम्भ में हुए होंगे। चन्द्र के पुत्र शेष नृसिंह ने की थी। इसका दूसरा नाम गोष्ठाष्टमी-कार्तिक शुक्ल अष्टमी को इस व्रत का अनुष्ठान 'धर्मसागर' अथवा 'धर्मतत्त्वालोक' भी है। इसमें छः होता है । इसमें गौओं के पूजन का विधान है । गौओं को वीचियाँ हैं-१. संस्कार २. आह्निक ३. श्राद्ध ४. घास खिलाना, उनको परिक्रमा करना तथा उनका अनुशुद्धि ५. काल और ६. प्रायश्चित्त । इसका उल्लेख सरण करना चाहिए। 'निर्णयसिन्धु' और लक्ष्मण भट्ट के 'आचाररत्न' में गोष्ठीपूर्ण-स्वामी रामानुज के दूसरे दीक्षागुरु । इनसे पुनः हुआ है । दे० अलवर संस्कृत ग्रन्थसूची।
श्रीरङ्गम् में रामानुज ने दीक्षा ली। गोष्ठीपूर्ण ने इन्हें गोलतिका व्रत-इस व्रत में ग्रीष्म ऋतु में कलश से पवित्र योग्य समझकर मन्त्र रहस्य समझा दिया और यह आज्ञा दी जल की धारा भगवान् शिव की प्रतिमा पर डाली जातो कि दूसरों को यह मन्त्र न सुनायें। परन्तु जब उन्हें ज्ञात है। विश्वास किया जाता है कि इससे ब्रह्मपद की प्राप्ति हुआ कि इस मन्त्र के सुनने से ही मनुष्यों का उद्धार हो होती है । दे० हेमाद्रि, २.८६१ ( केवल एक श्लोक )। सकता है, तब वे एक मंदिर की छत पर चढ़कर सैकड़ों गोविन्द स्वामी-गोविन्द स्वामी 'ऐतरेय ब्राह्मण' के एक नर-नारियों के सामने चिल्ला-चिल्ला कर मन्त्र का प्रसिद्ध भाष्यकार हुए हैं।
उच्चारण करने लगे । गुरु यह सुनकर बहुत क्रोधित हुए 'अष्टछाप' के एक भक्त कवि भी इस नाम से प्रसिद्ध और उन्होंने शिष्य को बुलाकर कहा-'इस पाप से तुम्हें हैं, जो संगीताचार्य भी थे।
अनन्तकाल तक नरक की प्राप्ति होगी।' इस पर रामानुज गोविन्दानन्द-आचार्य गोविन्दानन्द शङ्कराचार्य द्वारा प्रणीत ने बड़ी शान्ति से उत्तर दिया-गुरुदेव ! यदि आपकी 'शारीरक भाष्य' के टीकाकार हैं। उनकी लिखी हुई कृपा से सब स्त्री-पुरुष मुक्त हो जायेंगे और मैं अकेला 'रत्नप्रभा' सम्भवतः शाङ्करभाष्य की टीकाओं में सबसे नरक में पड़ गा तो मेरे लिए यही उत्तम है।' गोष्ठीपूर्ण सरल है । इसमें भाष्य के प्रायः प्रत्येक पद की व्याख्या रामानुज की इस उदारता पर मुग्ध हो गये और उन्होंने है । सर्वसाधारण के लिए भाष्य को हृदयंगम कराने में प्रसन्न होकर कहा-'आज से विशिष्टाद्वैत मत तुम्हारे ही यह बहुत ही उपयोगी है। जो लोग विस्तृत और गंभीर नाम पर 'रामानुज सम्प्रदाय' के नाम से विख्यात होगा।' टीकाओं के समझने में असमर्थ है उन्हीं के लिए यह गोस्वामी-(१) एक धार्मिक उपाधि । इसका अर्थ है 'गो व्याख्या लिखी गयी है।
(इन्द्रियों) का स्वामी ( अधिकारी)'। जिसने अपनी गोविन्दानन्दजी ने 'रत्नप्रभा' में अपने गुरु के सम्बन्ध इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है वही वास्तव में
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