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कृष्णषष्ठी-केतु
एक आचार्य ने किया था। यह कर्णाटक में उसी प्रकार कृष्णपिङ्गला-दुर्गा का एक पर्याय (कृष्ण-पिङ्गल वर्णलोकप्रिय है, जिस प्रकार हिन्दी क्षेत्र में प्रेमसागर और युक्ता)। कहीं-कहीं शिव को भी कृष्ण-पिङ्गल रूप में सुखसागर ।
सम्बोधित किया गया है : कृष्णषष्ठी-(१) मार्गशीर्ष कृष्ण षष्ठी को इस व्रत का ऋतं सत्यं परं ब्रह्म पुरुषं कृष्णपिङ्गलम् । अनुष्ठान होता है । एक वर्षपर्यन्त इसका आचरण करना ऊर्ध्वलिङ्गं विरूपाक्षं विश्वरूपं नतोऽस्म्यहम् ।। चाहिए। सूर्य का प्रत्येक मास में भिन्न-भिन्न नामों से कृष्ण यजुर्वेद-यजुर्वेद का प्राचीन पाठ, जिसमें मन्त्रों के साथ पूजन होना चाहिए।
ब्राह्मण भाग भी मिला हुआ है। मन्त्र-ब्राह्मण के पार्थक्य (२) मास के दोनों पक्षों की षष्ठी को एक वर्षपर्यन्त के समझने में दुरूहता होने के कारण इसको कृष्ण यजुर्वेद इस व्रत का अनुष्ठान होना चाहिए । नक्त भोजन करना कहा जाने लगा। इसके पाठविवेचन में याज्ञवल्क्य ऋषि चाहिए तथा स्वामी कार्तिकेय को अर्घ्य देना चाहिए। का गुरु से मतभेद हो गया था, तब गुरु ने उनसे अपना वेद कृष्णस्तवराज-निम्बार्काचार्य द्वारा रचित एक छोटा स्तोत्र उगलवा लिया (छीन लिया)। बाद में याज्ञवल्क्य मन्त्रग्रन्थ । यह निम्बार्कसम्प्रदाय में बहुत लोकप्रिय है। किन्तु यह ब्राह्मण का 'शुक्ल यजुर्वेद' के नाम से अलगाव कर पाये। निश्चित नहीं है कि यह आद्य आचार्य की रचना है या कृष्णसार मृग-काली पीठ वाला पुराना हिरन । धर्मशास्त्र बाद के किसी आचार्य की।
के अनुसार ऐसे मृग जिस क्षेत्र में स्वच्छन्द घूमते हैं, वह कृष्णानन्द-तैत्तिरीयोपनिषद् पर अनेक भाष्य और वृत्तियाँ
तपस्या के योग्य पवित्र माना गया है। शिकारियों के क्रूर हैं । कृष्णानन्द स्वामी की भी एक वृत्ति इस पर है।
हिंसाकर्म से बचे रहने पर हिरन काले पड़ जाते हैं, अतः कृष्णानन्द वागीश-शाक्त साहित्य के उन्नीसवीं शती के ।
ऐसा निष्पाप स्थान शुद्ध समझा जाता है। प्रमुख आचार्य । इन्होंने 'तन्त्रसार' नामक ग्रन्थ की रचना
कृष्णा-कालिन्दी या यमुना नदी का एक नाम । की है।
पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी का नाम भी कृष्णा है। कृष्णामृतमहार्णव-मध्वाचार्य रचित एक ग्रन्थ । इसकी एक
काली देवी भी कृष्णा कही जाती है। टीका आचार्य श्रीनिवास तीर्थ ने १८ वीं शती में
कृष्णा नदी-दक्षिण भारत की पुण्यसलिला नदी। इसके लिखी है।
पर्याय हैं कृष्णवेण्या, कृष्णगङ्गा आदि । महाभारत (६.९. कृष्णार्चनवीपिका-सोलहवीं शती में चैतन्यमत के प्रसिद्ध
३३) में इसका निम्नाङ्कित उल्लेख है : आचार्य जीव गोस्वामी द्वारा विरचित ग्रन्थ । इसमें श्री
सदा निरामयां कृष्णां मन्दगां मन्दवाहिनीम् । कृष्ण की सेवा-पूजा का विधान भली भाँति वर्णित है।
[कृष्णा सदा पवित्र, मन्द गति और मन्द प्रवाह वाली
है।] राजनिघण्टु के अनुसार इसके जल के गुण स्वच्छत्व, कृष्णालङ्कार-अप्पय दीक्षित कृत 'सिद्धान्तलेश' पर
___ रुच्यत्व, दीपनत्व तथा पाचकत्व हैं । अच्युत कृष्णानन्दतीर्थ कृत टीका । टीका की रचना में केतु-नव ग्रहों में से अन्तिम । इसकी गणना दुष्ट ग्रहों में इन्हें अद्भुत सफलता प्राप्त हुई है।
है। यह राहु (ग्रसने वाले ग्रह) का शरीर (धड़) माना कृष्णावतार-दे० 'कृष्ण' तथा 'कृष्ण-बलरामावतार'।
जाता है। ज्योतिषतत्व में इसकी रिष्टि (कुफल) का वर्णन कष्णाष्टमीव्रत-मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी को इस व्रत का इस प्रकार पाया जाता है: अनुष्ठान होता है। एक वर्षपर्यन्त इसका आचरण होना केतुर्यस्मिन्नृक्षेऽभ्युदितस्तस्मिन् प्रसूयते जन्तुः । चाहिए। शिव इसके देवता हैं। प्रत्येक मास में भगवान् रौद्रे सर्पमुहर्ते वा प्राणः संत्यजत्याशु ।। शिव का भिन्न-भिन्न नामों से पूजन तथा प्रत्येक मास में [आर्द्रा, आश्लेषा अथवा केतु जिस नक्षत्र में हो, इन भिन्न-भिन्न नैवेद्य पदार्थों का अर्पण करना चाहिए। नक्षत्रों में जन्म लेने वाले व्यक्ति को प्राणसंकट होता है।] कृष्णोपनिषद्-एक परवर्ती उपनिषद्, जिसमें कृष्ण का इसके दशाफल का पूर्ण वर्णन केरलीयजातक नामक दार्शनिक रूप व्याख्यात हुआ है । वैष्णव सम्प्रदाय में इसका ग्रन्थ में पाया जाता है। दूरसंचारी धूमकेतु नामक उपविशेष आदर है।
ग्रह भी केतु कहे गये हैं । ज्योतिष ग्रन्थों के केतुचाराध्याय
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