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कृष्णद्वादशी-कृष्णलीलाभ्युदय
२०३ पदों का शास्त्रीय गायन पुष्टिमार्गीय मन्दिरों में अब भी कृष्ण-बलरामावतार-भगवान् विष्णु का कृष्णावतार अष्टम प्रचलित है।
पूर्णावतार के रूप में माना जाता है। कहा भी गया है : कृष्णद्वादशी-आश्विन कृष्ण द्वादशी को इस व्रत का अनु- एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ।' सभी ष्ठान होता है। द्वादशी के दिन उपवास तथा वासुदेव के अवतार अंशावतार हैं, किन्तु कृष्ण-अवतार पूर्णावतार होने पूजन का विधान है। वासुदेवद्वादशी के नाम से भी यह के कारण साक्षात् भगवत्स्वरूप है। कृष्ण के अवतार प्रसिद्ध है।
के साथ उनके बड़े भाई बलराम अंशावतार के रूप में कृष्णदेव-विजयनगर के एक यशस्वी राजा (१५०९-२९ अवतरित हुए थे। ई०)। ये विद्या और कला के प्रसिद्ध आश्रयदाता थे। इनके बलराम और कृष्ण की उत्पत्ति के पूर्व पृथ्वी असुरसमय में दक्षिण में हिन्दू धर्म का पुनरुत्थान हुआ। इनके भार से पीड़ित होकर गौ के रूप में रोती हुई ब्रह्मा के राजपण्डितों ने कर्ममीमांसा का उद्धार किया, वेदों का पास गयी एवं ब्रह्मादि सभी देवताओं ने मिलकर पृथ्वी भाष्य लिखा एवं दर्शन तथा स्मृतियों का संग्रह किया। की रक्षा के लिए भगवान् की प्रार्थना की। उस समय इनकी राजसभा के दो महान् आचार्य थे दो भाई सायण कंस एवं जरासन्ध आदि बलवान् असुरों से संसार पीड़ित (वेदों के प्रसिद्ध भाष्यकार) और माधव (दार्शनिक तथा था। धर्म पतन की ओर जा रहा था। दूसरी ओर दुर्योधर्मशास्त्री)।
धन आदि कौरववंशीय राजाओं के अत्याचारों से राजा कृष्ण द्वैपायन-वेदान्त दर्शन अथवा ब्रह्मसूत्र के मान्य और प्रजा दोनों में ही भयंकर पापवृद्धि हो रही थी। लेखक बादरायण थे। भारतीय परम्परा इन्हें वेदव्यास इधर शिशुपाल, दन्तवक्र, के द्वारा भी संसार अत्यधिक तथा कृष्ण द्वैपायन भी कहती है। किन्तु इनके जीवन के पीड़ित था। इस प्रकार इस भयंकर भार से पृथ्वी के बारे में विशेष कुछ ज्ञात नहीं है। महाभारत के अनुसार उद्धार के लिए तथा धर्मरक्षणार्थ भगवान् का पूर्णावये ऋषि पराशर तथा धीवरकन्या सत्यवती से उत्पन्न तार हुआ। हुए थे । माता ने संकोचवश इनको एक द्वीप में रख दिया था, जहाँ इनका पालन-पोषण हुआ। इसीलिए ये द्वैपायन लिखे हैं उनमें एक कृष्णभट्ट भी है। (द्वीप में पालित) कहलाये। भारतीय परम्परा के अनुसार कष्णमिश्र-जेजाकभुक्ति के चन्देल राजा कीर्तिवर्मा (११२९ये वैदिक संहिताओं के संकलनकर्ता एवं सम्पादक एवं अठारह ११६३ ई०) के राजकवि और गुरु । इन्होंने प्रबोधपुराणों तथा महाभारत के रचयिता थे । भारतीय साहित्य चन्द्रोदय नामक प्रतीकात्मक नाटक की रचना की। जनके इतिहास में इनका स्थान अद्वितीय है । इनके ग्रन्थ पर
श्रुति के अनुसार जब कीर्तिवर्मा ने चेदिराज कर्ण पर वर्ती भारतीय साहित्य के उपजीव्य हैं । दे० 'व्यास'।
विजय प्राप्त की तो युद्ध में रक्तपात देखकर उसके मन में कृष्णदोलोत्सव-चैत्र शुक्ल पक्ष की एकादशी को इस व्रत । वैराग्य उत्पन्न हुआ। उसी समय कृष्णमिश्र ने कीर्तिवर्मा का अनुष्ठान होता है। भगवान् कृष्ण की प्रतिमा (लक्ष्मी के मनोरञ्जन के लिए बड़ी पटुता से इस नाटक की सहित) किसी झूले में विराजमान करके उसका दमनक रचना की। यह दार्शनिक नाटक है और इसमें अद्वैत नामक पत्तियों से पूजन करना चाहिए। रात्रि में जागरण वेदान्त के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है। इसकी का विधान है । दे० स्मृतिकौस्तुभ, १०१ ।
शैली रूपकात्मक है । इसके पात्र विवेक, प्रबोध, साधन कृष्णध्यानपद्धति-अप्पय दीक्षित कृत 'कृष्णध्यानपद्धति' और उनके विरोधी मनोविकार हैं। इसमें दर्शाया गया है एवं उसकी व्याख्या एक उत्कृष्ट रचना है । यह वैष्णवों में कि किस प्रकार मानव सांसारिक विकारों और प्रपञ्चों से अति प्रिय और प्रसिद्ध ग्रन्थ है।
मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है । इसमें विरोधी मतों कृष्णप्रेमामृत-वल्लभ संप्रदाय का एक मान्य ग्रन्थ । इसका और पाखण्डों का खण्डन किया गया है। दे० प्रबोधनिर्माणकाल १५३१ ई० के लगभग है। विट्ठलनाथजी चन्द्रोदय । ने इसकी रचना की थी। अत्यन्त ललित छन्दों में कृष्ण- कृष्णलीलाभ्युदय--भागवत पुराण के दशम स्कन्ध का यह भक्ति की अभिव्यक्ति इसमें की गयी है।
कन्नड अनुवाद १५९० ई० के लगभग बेङ्कट आनामक
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