________________
कौटिल्य-कौल
२११
एवं 'राणायनीय' का प्रचार कर्णाटक एवं महाराष्ट्र में मध्य एवं लघु । भट्टोजिदीक्षित ने 'सिद्धान्तकौमुदी' है। कौथमी शाखा के आचार्य अपने ब्रह्मचारियों ( उद्- लिखी जिसके प्रचार से अष्टाध्यायी की पठनप्रणाली उठ गाता की शिक्षा लेने वालों ) को ५८५ स्वरों की शिक्षा सी गयी । सिद्धान्तकौमुदी पर भट्टोजिदीक्षित ने ही 'प्रौढमदेते थे, जिनका सम्बन्ध उतने ही छन्दों से होता था। नोरमा' नाम की टीका लिखी । मध्यकौमुदी एवं लघुवैसे तो सामवेद की १००० शाखाएँ कही जाती है, किन्तु कौमुदी वरदराज ने लिखीं। कौमुदी पाणिनिसूत्रों पर ही प्रचलित हैं केवल तेरह । इन तेरहों में भी आजकल दो अवलम्बित है । संस्कृत भाषा के अध्ययन में यह अत्यन्त ही प्रधान हैं -कौथुमी (उत्तर भारत में काशी, कान्य- महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । कहावत है "कौमुदी कण्ठलग्ना चेद् कुब्ज, गुजरात और वङ्ग) तथा राणायनीय (दक्षिण में)। वृथा भाष्ये परिश्रमः ।" कौटिल्य-कौटिल्य चाणक्य एवं विष्णुगुप्त नाम से भी प्रसिद्ध कौमुदीव्रत-आश्विन शुक्ल एकादशी से यह व्रत किया हैं। इनका व्यक्तिवाचक नाम विष्णुगुप्त, स्थानीय नाम जाता है। उपवास तथा जागरण का इसमें विधान है। चाणक्य (चणकावासो) और गोत्रनाम कौटिल्य (कुटिल द्वादशी को विभिन्न प्रकार के कमलों से वासुदेव की पूजा । से) था। ये चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रधानमन्त्री थे। इन्होंने की जाती है । वैष्णवों द्वारा त्रयोदशी को यात्रोत्सव, चतु'अर्थशास्त्र' नामक एक ग्रन्थ की रचना की, जो तत्कालीन र्दशी को उपवास तथा पूर्णिमा को वासुदेव की पूजा की राजनीति, अर्थनीति, इतिहास, आचरण शास्त्र, धर्म आदि जाती है। 'ओं नमो भगवते वासुदेवाय' मन्त्र के जप का पर भली भाँति प्रकाश डालता है । 'अर्थशास्त्र' मौर्य काल इसमें विशेष महत्त्व है। हेमाद्रि के अनुसार इस व्रत को के समाज का दर्पण है, जिसमें समाज के स्वरूप को सर्वाङ्ग भगवान् विष्णु के जागरण तक अर्थात् कार्तिक शुक्ल एकादेखा जा सकता है । अर्थशास्त्र से धार्मिक जीवन पर भी दशी तक जारी रखना चाहिए। काफी प्रकाश पड़ता है । उस समय बहुत से देवताओं तथा कौरव्य-एक शैव संप्रदायाचार्य। शिव के लकूलीश (संन्यासी देवियों की पूजा होती थी। न केवल बड़े देवता-देवी अपितु रूप में शिव) अवतार के चार शिष्य थे-कुशिक, गाग्य, यक्ष, गन्धर्व, पर्वत, नदी, वृक्ष, अग्नि, पक्षी, सर्प, गाय
मित्र (मैत्रेय) एवं कौरष्य। इन्होंने चार उपसम्प्रदायों आदि की भी पूजा होती थी। महामारी, पशुरोग, भूत,
की स्थापना की। अग्नि, बाढ़, सूखा, अकाल आदि से बचने के लिए भी
कौम उपपुराण-यह उन्तीस उपपुराणों में से एक उपबहतेरे धार्मिक कृत्य किये जाते थे। अनेक उत्सव, जादू टोने आदि का भी प्रचार था। कौटिलीय अर्थशास्त्र के कौल-शाक्तों के वाममार्गी संप्रदाय में कौल एक शाखा है। अनुसार राजा का मुख्य कर्तव्य था प्रजा द्वारा वर्णाश्रम
इसका आधारभूत साहित्य है कौलोपनिषद् तथा परशुरामधर्म और नैतिक आचरण का पालन कराना। दे० 'अर्थ
भार्गवसूत्र । दूसरे ग्रन्थ में कौल प्रणाली की सभी शाखाओं शास्त्र'।
का सम्पूर्ण विवरण है। दिव्य, घोर और पशु इन तीन कौतुकव्रत-इसमें नौ वस्तुओं के उपयोग का विधान है, भावों में से दिव्य भाव में लीन ब्रह्मज्ञानी को 'कौल' कहते यथा दूर्वा, अंकुरित यव, बालक नामक पौधा, आम्रदल, हैं। कूलार्णवतन्त्र में 'कौल' की निम्नांकित परिभाषा दो प्रकार की हल्दी, सरसों, मोर के पंख तथा साँप की पायी जाती है : केंचुली। विवाह के समय उपर्युक्त वस्तुएँ वर-वधू के _ 'दिव्यभावरतः कौल: सर्वत्र समदर्शनः ।' कङ्कण में बाँधी जाती हैं। दे० हेमाद्रि, १.४९; व्रतराज, [दिव्य भाव में रत, सर्वत्र समान रूप से देखनेवाला १६ । कालिदास कृत रघुवंश के अष्टम सर्ग के प्रथम श्लोक 'कौल' होता है ।] महानीलतन्त्र में कथन है : में 'विवाहकौतुक' शब्द आया है। ये सभी मांगलिक पशोर्वक्त्राल्लब्धमन्त्रः पशुरेव न संशयः । वस्तुएँ हैं तथा अनुराग, काम और सर्जन क्रिया को इंगित वीराल्लब्धमनुर्वीरः कौलाच्च ब्रह्मविद् भवेत् ।। करती हैं।
[पशु के मुख से मन्त्र प्राप्त कर मनुष्य निश्चय ही पशु कौमुदी-संस्कृत व्याकरण के ग्रन्थों में कौमुदी का प्रचार रहता है, वीर से मन्त्र पाकर बीर और कौल के मुख से अधिक देखा जाता है। इसके तीन संस्करण हैं--सिद्धान्त, मन्त्र पाकर ब्रह्मज्ञानी होता है ।] दे० 'कौलाचार' ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org