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गणपति उपनिषद-गणेश उपपुराण
वन्दे शैलसुतासुतं गणपति सिद्धिप्रदं कामदम् ।। तन्त्रसार में एक दूसरा ध्यान वर्णित है : सिन्दूराभं त्रिनेत्रं पृथुतरजठरं हस्तपर्दधानं दन्तं पाशाङ्कुशेष्टान्युरुकरविलसद्बीजपूराभिरामम् । बालेन्दुद्योतिमौलि करिपतिवदनं दानपूरार्द्रगण्डम् भोगीन्द्राबद्धभूषं भजत गणपति रक्तवस्त्राङ्गरागम् ॥ पूजापद्धति में गणपतिनमस्कार की विधि इस प्रकार है:
देवेन्द्रमौलिमन्दारमकरन्दकणारुणाः । विघ्नं हरन्तु हेरम्बचरणाम्बुजरेणवः ।। राघवभट्ट कृत शारदातिलक की टीका के अनुसार इकावन (५१) गणपति और उतनी ही उनकी शक्तियाँ हैं। गणपति उपनिषद्-गाणपत्य साहित्य का उदय गणपति- पूजा से होता है । गणपति तापनीय उपनिषद एवं गणपति उपनिषद् में गाणपत्य धर्म वा दर्शन प्राप्त होता है । गण- पति उपनिषद् अथर्वशिरस् का ही एक भाग है। इसका अंग्रेजी अनुवाद केनेडी ने प्रस्तुत किया है। गणपति-उपासना-महाभारत, अनुशासन पर्व के १५१वें अध्याय में गणेश्वरों और विनायकों का स्तुति से प्रसन्न हो जाना और पातकों से रक्षा करना वर्णित है । इस नाते गजानन एवं षडानन दोनों गणाधीश हैं और भगवान् शंकर के पुत्र है। परन्तु गजानन तो परात्पर ब्रह्म के अवतार माने जाते हैं और परात्पर ब्रह्म का नाम "महा- गणाधिपति' कहा गया है। भाव यह है कि महागणाधि- पति ने ही अपनी इच्छा से अनन्त विश्व और प्रत्येक विश्व में अनन्त ब्रह्माण्डों की रचना की और प्रत्येक ब्रह्माण्ड में अपने अंश से त्रिमूर्तियाँ प्रकट की। इसी दृष्टि से सभी सम्प्रदायों के हिन्दुओं में सभी मंगल कार्यों के आरम्भ में गौरी-गणेश की पूजा सबसे पहले होती है । यात्रा के आरम्भ में गौरी-गणेश का स्मरण किया जाता है । पुस्तक, पत्र, बही आदि किसी भी लेख के आरम्भ में पहले "श्रीगणेशाय नमः" लिखने की पुरानी प्रथा चली आती है। महाराष्ट्र में गणपतिपूजा भाद्र शुक्ल चतुर्थी को बड़े समारोह से हुआ करती है और गणेशचतुर्थी के व्रत तो सारे भारत में मान्य हैं। गणपति विनायक के मन्दिर भी भारतव्यापी हैं और गणेशजी आदि और अनादि देव माने जाते हैं। इन्हीं के नाम से गाणपत्य सम्प्रदाय प्रचलित हुआ।
गणपतिकुमारसम्प्रदाय-'शङ्करदिग्विजय' में आनन्दगिरि
और धनपति ने गाणपत्य सम्प्रदाय की छ: शाखाओं का वर्णन किया है। इनमें एक शाखा 'गणपतिकुमारसम्प्रदाय' है । इस सम्प्रदाय वाले हरिद्रा-गणपति को पूजते हैं। वे भी अपने उपास्य देव को परब्रह्म परमात्मा कहते हैं और ऋग्वेद के दूसरे मण्डल के २३वें सूक्त को प्रमाण मानते हैं। दे० 'गणपति' । गणपतिचतुर्थो-भविष्यपुराण के अनुसार प्रत्येक चतुर्थी का व्रत गणपतिचतुर्थीव्रत कहलाता है। जब गणेश की पूजा भाद्र शुक्ल चतुर्थी को होती है तो इस तिथि को शिवाचतुर्थी, यदि माघ शुक्ल चतुर्थी को हो तो शान्ता चतुर्थी और यदि शुक्ल चतुर्थी को मंगल का दिन पड़े तो उसे सुखा चतुर्थी कहते हैं। आजकल यह पूजा डेढ़ दिन, पाँच दिन, सात दिन अथवा अनन्तचतुर्दशी तक चलती है । अन्तिम दिन मूर्ति कूप, तालाब, नदी अथवा समुद्र में गाजे-बाजे के साथ विजित की जाती है।
दो मास की चतुर्थियों के दिनों में व्रती को निराहार रहने का विधान है। उस दिन ब्राह्मण को तिल से बने पदार्थ खिलाने चाहिए। वही पदार्थ रात्रि में स्वयं भी खाने चाहिए । दे० हेमाद्रि, १.५१९-५२० ।। गणपतितापनीयोपनिषद-नसिंहतापनीयोपनिषद् की बहुग्राहकता वा प्रचार देख अन्य सम्प्रदायों ने भी इसी ढंग के उपनिषद्ग्रन्थ प्रस्तुत किये। राम, गणपति, गोपाल, त्रिपुरा आदि तापनीय उपनिषदें प्रस्तुत हई। गणपतितापनीयोपनिषद् में गाणपत्य मत के दर्शन का विवेचन
गणेश उत्सव-महाराष्ट्र प्रदेश में यह उत्सव उसी उल्लास से मनाया जाता है जैसे बंगाल में दुर्गोत्सव, उड़ीसा में रथयात्रा तथा द्रविड देश में पोंगल मास । मध्ययुग में मराठा शक्ति के उदय के साथ गणेशपूजन का महत्त्व बढ़ा । उस समय गणेश (जननायक) की विशेष आवश्यकता थी। गणेश उसके धार्मिक प्रतीक थे। आधुनिक युग में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने इस उत्सव का पुनरुद्धार किया। इसमें लगभग एक सप्ताह का कार्यक्रम बनता है । इसमें पूजन, कथा, व्याख्यान, मनोरञ्जन आदि का आयोजन किया जाता है। यह उत्सव बड़े सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय महत्त्व का है। गणेश उपपुराण-गाणपत्य सम्प्रदाय का उपपुराण । इसमें
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