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गवाशिर - ' गवाशिर' का ऋग्वेद (१.१३७.११८७,९; २.४१.२३.३२.२४२.१, ७,७५२.१०१०१.१० ) में अनेक बार सोम के पर्याय के रूप में वर्णन हुआ है । गहवर (गह्वर ) वन - यह व्रजयात्रा के प्रमुख स्थलों में बहुत ही रमणीक वन है। शंख का चिह्न महाप्रभु वल्ल भाचार्य की बैठक, दानघाटी तथा गाय आदि यहाँ के मुख्य दर्शनीय स्थान हैं। यहां जयपुर के महाराज माधवसिंह का बनवाया हुआ विशाल एवं भव्य मन्दिर है । इसमें पत्थर की शिल्पकला देखने योग्य है । गहिनीनाथ - नाथ सम्प्रदाय के नौ नाथ प्रसिद्ध हैं । गहिनी - नाथ इनमें चतुर्थ हैं।
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स्तनों का चिह्न
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गाजीदास - निर्गुणधारा के सुधारक पन्थों में सतनामी पन्थ उल्लेखनीय है । इस पन्थ का प्रारम्भ किसने कब किया, इसका ठीक पता नहीं है। इसके पुनरुद्धारकों में महात्मा जगजीवन दास ( सं० १८०० ), उनके शिष्य दूलनदास तथा कुछ काल पीछे गाजीदास हुए गाजीदास छत्तीसगढ़ के चमार जाति के थे। आज से लगभग सौ सवा सौ वर्ष पहले इन्होंने इस पन्थ की पुनर्रचना की । गाजीदास ने चमार जाति के सामाजिक सुधार के लिए छत्तीसगढ़ प्रान्त के चमारों में इसका प्रचार किया । दे० ' सतनामी सम्प्रदाय' । गाणपत्य - डॉ० भण्डारकर ने अपने ग्रन्थ ( वैष्णविष्म, शैविज्म एण्ड अदर माइनर सेक्ट्स ऑव इण्डिया ) में इस मत के प्रारम्भिक विकास पर अच्छा प्रकाश डाला है। इस सम्प्रदाय का उदय छठी शताब्दी में हुआ कहा जाता है, किन्तु यह तिथि अनिश्चित ही है । गणपति देव की पूजा ( स्तुति ) का उल्लेख याज्ञवल्क्यस्मृति, मालतीमाधव तथा ८वीं व ९वीं शती के अभिलेखों में प्राप्त होता है। किन्तु इस मत का दर्शन 'वरवतापनीय' अथवा 'गणपतितापनीय' उपनिषदों में प्रथम उपलब्ध होता है । गणेश को अनन्त ब्रह्म कहा गया है। तथा उनके सम्मान में एक राजसी मन्त्र नृसिंहतापनीय उप० में दिया गया है। इस मत की दूसरी उपनिषद् गणपति-उपनिषद् है, जो स्मार्तो के अथर्वशिरस् का एक भाग है। वैष्णव संहिताओं की तालिका में गणेशसंहिता का उल्लेख है जो इसी सम्प्रदाय से सम्बन्धित है। अग्नि तथा गरुड पुराणों में इस देव की पूजा के
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गवाशिरगात्रहरिया
निर्देश प्राप्त हैं, जो इस सम्प्रदाय से सम्बन्धित न होकर भागवतों या स्मातों की पज्ञायतनपूजा से सम्ब न्धित हैं ।
ईसा की दशम अथवा एकादश शताब्दी तक यह सम्प्रदाय प्रयप्ति प्रचलित था तथा चौदहवीं शती में अवनत होने लगा । इस सम्प्रदाय का मन्त्र 'श्रीगणेशाय नम:' है तथा ललाट पर लाल तिलक का गोल चिह्न इस मत का प्रतीक है । सम्प्रदाय की उपनिषदों के सिवा इस मत का प्रतिनिधि एवं महत्वपूर्ण ग्रन्थ है 'गणेशपुराण' जिसमें गणेश की विभूतियों का वर्णन है और उनके कोढ़ विमोचन की चर्चा है। इस मत के धार्मिक आचरणों के अतिरिक्त गणेश के हजारों नाम इसमें उल्लि खित हैं । रहस्यमय ध्यान से गणेशरूपी सर्वोत्कृष्ट ब्रह्म को प्राप्त किया जा सकता है। साथ ही मूर्तिपूजा की हिन्दू प्रणाली भी यहाँ दी हुई हैं। 'मुद्गलपुराण' भी एक गाणपत्य पुराण है ।
'शङ्करदिग्विजय' में गाणपत्य मत के छः विभाग कहे गये हैं - १. महागणपति २ हरिद्रा गणपति ३. उच्छिष्ट गणपति ४. नवनीत गणपति ५. स्वर्ण गणपति एवं ६ सन्तान गणपति । उच्छिष्ट गणपति सम्प्रदाय की एक शाखा हेरम्ब गणपति की गुह्य प्रणाली ( हेरम्ब बौद्धों की तरह ) का अनुसरण करती है । गाणपत्य सम्प्रदाय की अनेक शालाएँ है, इनमें से अनेक शाखाएँ मुद्गलपुराण में भी उल्लिखित हैं तथा उनमें से अनेकों का स्वरूप दक्षिण भारत की मूर्तियों में आज भी दृष्टिगोचर होता है, किन्तु यह सम्प्रदाय आज अस्तित्वहीन है ।
इस सम्प्रदाय का ह्रास होते हुए भी इस देवता का स्थान आज भी लघु देवों में प्रधानता प्राप्त किये हुए है । इनकी पूजा आज भी विघ्नविनाशक एवं सिद्धिदाता के रूप में प्रत्येक माङ्गलिक अवसर पर सर्वप्रथम होती है । स्कन्दपुराण में इनके इसी रूप ( लघु देव ) का वर्णन प्राप्त है । ब्रह्मवैवर्त पुराण के गणेशखण्ड में इनके जन्म तथा गजवदन होने का वर्णन है। दे० 'गणपति' तथा 'गणेश' ।
गात्रहरिद्रा - गावहरिद्रा का प्रयोग हिन्दुओं में अनेक अवसरों पर किया जाता है। बालिकाओं के रजोदर्शन
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