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[ इन्द्र, कशेरु, ताम्रपर्णी, गभस्तिमान्, नाग, सौम्य, गान्धर्व, वारुण तथा भारत, ये नौ द्वीप हैं । ]
(२) आठ प्रकार के विवाहों में से एक प्रकार का विवाह गान्धर्व कहलाता है। जिस विवाह में कन्या और बर परस्पर अनुराग से एक दूसरे को पति-पत्नी के रूप में वरण करते हैं उसे गान्धर्व कहते हैं। मनुस्मृति ( ३.३२) में इसका लक्षण निम्नांकित है :
इच्छयायोन्यसंयोगः कन्यायाश्च वरस्य च । गान्धर्वः स तु विज्ञेयो मैथुन्यः कामसम्भवः ॥ [ जिसमें कन्या और वर की इच्छा से परस्पर संयोग होता है और जो मैथुम्य और कामसम्भव है उसे गान्धर्व जानना चाहिए। ] दे० 'विवाह' |
गायत्री - ऋग्वेदीय काल में सूर्योपासना अनेक रूपों में होती थी । सभी द्विजों की प्रातः एवं सन्ध्या काल की प्रार्थना में गायत्री मन्त्र को स्थान प्राप्त होना सूर्योपासना को निश्चित करता है ।
'गायत्री' ऋग्वेद में एक छन्द का नाम है। सावित्र ( सविता अथवा सूर्य-सम्बन्धी) मन्त्र इसी छन्द में उपलब्ध होता है (ऋग्वेद, ३.६२.१० ) । गायत्री का अर्थ है 'गायन्तं त्रायते इति ।' 'गाने वाले की रक्षा करने वाली ।' पूरा मन्त्र है -भूः । भुवः । स्वः । तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् [ हम सविता देव के वरणीय प्रकाश को धारण करते हैं । वह हमारी बुद्धि को प्रेरित करे ।]
गायत्री का एक नाम 'सावित्री' भी है। उपनयनसंस्कार के अवसर पर आचार्य गायत्री अथवा सावित्री मन्त्र उपनीत ब्रह्मचारी को प्रदान करता है । सन्ध्योपासना में इस मन्त्र का जप तथा मनन अनिवार्य माना गया है । जो ऐसा नहीं करते वे 'सावित्रीपतित' समझे जाते हैं । गायत्री त्रिपदा, छन्दोयुक्ता, मन्त्रात्मिका और वेदमाता कही गयी है। मनुस्मृति (२.७७-७८ ८१-८३) में इसका महत्त्व बतलाया गया है ।
पद्मपुराण में गायत्री को ब्रह्मा की पत्नी कहा गया है। यह पद गायत्री को कैसे प्राप्त हुआ, इसकी कथा विस्तार से दी हुई है । इसका ध्यान इस प्रकार बताया गया है : श्वेता त्वं श्वेतरूपासि शशाङ्केन समा मता ।
विभ्रती
विपुलावूरू कदलीगर्भकोमली ॥
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गायत्री-गार्हपत्य
शृङ्गं करे गृह्य पङ्कजं च सुनिर्मलम् । वसाना बसने क्षौमे रक्तं चाद्भुतदर्शने ॥ गायत्रीव्रत - शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें सूर्यपूजन का विधान है। गायत्री (ऋग्वेद ३.६२.१०) का जप शत बार, सहस्रबार दस सहस बार करने से अनेक रोगों का नाश होता है। दे० हेमाद्रि, २.६२-६३ (गरुडपुराण से उद्धृत ) । इस ग्रन्थ में गायत्री की प्रशंसा तथा पवित्रता के विषय में बहुत कुछ
कहा गया है। गार्ग्यगुक्ल यजुर्वेद के प्रातिशाख्यसूत्र (काल्पावन कृत) तथा कात्यायन के ही वाजसनेय प्रातिशाख्य में गायं का नाम आया है। परवर्ती काल में एक पाशुपत आचार्य के रूप में भी इनका उल्लेख है । चित्रप्रशस्ति में कहा गया है कि शिव ने कारोहण (लाट देश) में अवतार लिया तथा पाशुपत मत के ठीक-ठीक पालनार्थ उनके चार शिष्य हुए - कुशिक, गार्ग्य, कौरुष्य एवं मैत्रेय ।
पाणिनिसूत्रों में प्राचीन व्याकरण-आचार्य के रूप में भी गार्ग्य का उल्लेख हुआ है ।
गार्हपत्य - एक यज्ञिय अग्नि । भारतीय इतिहास के प्रारम्भिक काल में देवताओं की पूजा प्रत्येक आर्य अपने गृह में स्थापित अग्निस्थान में करता था। गृहस्थ का कर्तव्य होता था कि वह यज्ञवेदी में प्रथम अग्नि की स्थापना करे । इस उत्सव को 'अग्न्याधान' कहते थे। ऐसे अवसर पर गृहस्थ चार पुरोहितों के साथ 'गार्हपत्य' तथा 'आहबनीय' अग्नियों के लिए यज्ञवेदियों का निर्माण करता था। गार्हपत्य अग्नि के लिए वृत्ताकार आहवनीय अग्नि के लिए वर्गाकार तथा 'दक्षिणाग्नि' के लिए अर्द्ध वृत्ताकार ( यदि इसकी भी आवश्यकता हुई) स्थान निर्मित होता था। तब अध्वर्यु घर्षण द्वारा या गाँव से अस्थायी अग्नि प्राप्त करता था तथा 'गार्हपत्य अग्नि' की स्थापना करता था गार्हपत्य का आवाहन निम्नांकित वैदिक मन्त्र से किया जाता था :
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इह प्रियं प्रजया मे समृध्यताम्
अस्मिन् गृहे गार्हपत्याय जागृहि । (ऋग्वेद १०.८५.२७) मनुस्मृति में पिता को भी गार्हपत्य अग्निरूप माना गया है :
पिता गार्हपत्योऽग्निर्माताग्निर्दक्षिणः स्मृतः ।
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( ३.३३१ )
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