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गुहदेव-गृहस्थ (३) कहीं-कहीं विष्णु को भी गुह कहा गया है : जातियों-गुह्यक, किरात एवं किन्नरों के चित्र पाये जाते 'करणं कारणं कर्ता विकर्ता गहनो गुहः ।' (महा० १३. हैं । यक्षों के बहुत कुछ सदृश ही गुह्यक भी होते हैं । १४९-५४ ) इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार की गयी है : भरहुत और साँची की मूर्तिकला में इनका अङ्कन बौने के 'गुहते संवृणोति स्वरूपादीनि मायया' [ जो अपनी माया रूप में शालभञ्जिकाओं के पैरों के नीचे हुआ है । अनङ्गसे स्वरूप आदि का संवरण करता है।]
परवश व्यक्ति कामिनियों के चरणतल में कैसे दब जाता गुहदेव-वेदान्त के एक आचार्य । निघण्टु के टीकाकार है, इसका यह प्रतीक है। देवराज और भट्ट भास्कर ने माधवदेव, भवस्वामी, गुह- गुह्मकद्वादशी--द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। देव, श्रीनिवास, उब्वट आदि भाष्यकारों के नाम लिखे व्रती को इस दिन उपवास करना चाहिए तथा गुह्यकों हैं । ब्रह्मसूत्र रचना के बाद और स्वामी शङ्कराचार्य के पूर्व (यक्षों) की तिल और अक्षतों से पूजा करनी चाहिए। भी वेदान्त के आचार्यों की परम्परा अक्षुण्ण रही है । इन इस व्रत में किसी ब्राह्मण को सुवर्ण दान करने से समस्त आचार्यों का उल्लेख दार्शनिक साहित्य एवं शङ्कर के पापों का क्षय हो जाता है। भाष्य में हुआ है। रामानुजकृत वेदार्थसंग्रह (पृ० गुह्यसमाज--एक धार्मिक संघटन, जो वामाचारी तान्त्रिक १५४ ) में प्राचीन काल के छ: वेदान्ताचार्यों का उल्लेख साधकों का वह समाज है जिसमें बहुत सी गुह्य (गोपनीय) मिलता है, इनमें गुहदेव भी हैं।
क्रियाएँ होती हैं । इसमें वे ही साधक प्रवेश पाते हैं जो इस __गह-गम्भीर आध्यात्मिक तत्त्व को गुह्य कहते हैं । साधना में विधिवत् दीक्षित होते हैं। कन्दराओं, गुहाओं गीता ( ९.१ ) में भगवान् ने ज्ञान को गुह्यतम कहा है : और गुप्त स्थानों में इस समाज द्वारा साधना की जाती है।
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे । गूढज (गूढोत्पन्न)-धर्मशास्त्र के अनुसार बारह प्रकार के ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ।। पुत्रों में से एक । पत्नी अपने पति के अतिरिक्त किसी अन्य [ तुमको श्रद्धालु समझकर मैं इस अति गुह्य ज्ञान पुरुष से प्रच्छन्न रूप में जो पुत्र उत्पन्न करती है उसे का उपदेश करूँगा, विज्ञान के साथ इसको समझकर तुम गूढज कहा जाता है । मनुस्मृति (९,१७०) में इसकी परिकष्ट से छूट जाओगे।]
भाषा इस प्रकार की गयी है : बुद्धि अथवा हृदयाकाश रूपी गहरी गुहा में स्थित उत्पद्यते गृहे यस्य न च ज्ञायेत कस्य सः । होने कारण इस तत्त्व को गुह्य कहा गया है। कहीं-कहीं स गृहे गूढ़ उत्पन्नस्तस्य स्याद् यस्य तल्पजः ॥ विष्णु और शिव को भी गुह्य कहा गया है। विष्णु- यह दायभागी बन्धु माना गया है (मनु. ९,१५९) । सहस्रनाम ( महाभारत, १३.१४९.७१ ) में गुह्य विष्णु याज्ञवल्क्यस्मति (२.३२) में इसकी यही परिभाषा का एक नाम है :
मिलती है : गुह्यो गंभीरो गहनो गुप्तश्चक्रगदाधरः ।
'गृहे प्रच्छन्न उत्पन्नो गूढजस्तु सुतो मतः ।' इसी प्रकार महाभारत (१३.१७.९१ ) में शिव
वर्तमान हिन्दू-विधि में गूढ़ज पुत्र की स्वीकृति नहीं है। ( महादेव ) गुह्य कहे गये हैं :
गृहस्थ---गृह में पत्नी के साथ रहनेवाला । पत्नी का गृह में यजुः पादभुजो गुह्यः प्रकाशो जंगमस्तथा ।
रहना इसलिए आवश्यक है कि बहुत से शास्त्रकारों ने गुह्यक-अर्ध देवयोनियों में गुह्यक भी हैं। कुबेर के अनु
पत्नी को ही गृह कहा है : 'न गृहं गृहमित्याहुहिणी चरों का यह एक भेद है । धार्मिक तक्षणकला के अलङ्क- गृहमुच्यते ।' गृहस्थ द्वितीय आश्रम 'गार्हस्थ्य' में रहता रण में इसका प्रतीकात्मक उपयोग किया गया है। है । इसलिए इसको ज्येष्ठाश्रमी, गृहमेधी, गृही, गृहपति,
निधि रक्षन्ति ये यक्षास्ते स्युर्गुह्यकसंज्ञकाः । गृहाधिपति आदि भी कहा गया है। धर्मशास्त्र में ब्राह्मण [देवताओं की निधि के रक्षक यक्षगण गुह्यक कह- को प्रमुखता देते हुए गृहस्थधर्म का विस्तार से वर्णन लाते हैं।]
किया गया है । (दे० मनुस्मृति, अध्याय ४)।। अजन्ता की भित्ति-चित्रकला में जहाँ पर्वतीय दृश्य
चतुर्थमायुषो भागमुषित्वाद्यं गुरौ द्विजः । चित्रित हैं, उनमें पक्षी, वानर एवं काल्पनिक जङ्गली द्वितीयमायुषो भागं कृतदारो गृहे वसेत् ॥
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