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सदा मत्सरसंयुक्तं गुरुमन्त्रेषु वर्जयेत् । गुरुर्मन्त्रस्य मूलं स्यात् मूलशद्धी सदा शुभम् ॥ कूर्मपुराण (उपविभाग, अध्याय ११ ) में गुरुवर्ग की एक लम्बी सूची मिलती है :
उपाध्यायः पिता ज्येष्ठभ्राता चैव महीपतिः । मातुलः श्वशुरस्त्राता मातामहपितामही ॥ बन्धुर्ज्येष्ठः पितृव्यश्च पुंस्येते गुरवः स्मृताः । मातामही मातुलानी तथा मातुश्च सोदरा ॥ श्वश्रूः पितामही ज्येष्ठा धात्री च गुरवः स्त्रीषु । इत्युक्तो गुरुवर्गोऽयं मातृतः पितृतो द्विजाः ॥ इनका शिष्टाचार, आदर और सेवा करने का विधान है । युक्तिकल्पतरु में अच्छे गुरु के लक्षण निम्नांकित कहे गये हैं :
सदाचारः कुशलधी: सर्वशास्त्रार्थ पारगः । नित्यनैमित्तिकानाञ्च कार्याणां कारकः शुचिः ॥ अपर्व मैथुनपरः पितृदेवार्चने रतः । गुरुभक्तोजितक्रोधो विप्राणां हितकृत् सदा || दयावान् शीलसम्पन्नः सत्कुलीनो महामतिः । परदारेषु विमुखो दृढसंकल्पको द्विजः ॥ अन्यैश्च वैदिकगुणैर्युक्तः कार्यो गुरुर्नृपैः । एतैरेव गुणैर्युक्तः पुरोधाः स्यान्महीर्भुजाम् ।। मन्त्रगुरु के विशेष लक्षण बतलाये गये हैं : शान्तो दान्तः कुलीनश्च विनीतः शुद्धवेशवान् । शुद्धाचारः सुप्रतिष्ठः शुचिर्दक्षः सुबुद्धिमान् ।। आश्रमी ध्याननिष्ठश्च मन्त्र-तन्त्र - विशारदः । निग्रहानुग्रहे शक्तो गुरुरित्यभिधीयते ॥ उद्धर्तुञ्च व संहर्तुं समर्थो ब्राह्मणोत्तमः । तपस्वी सत्यवादी च गृहस्थो गुरुरुच्यते ॥ सामान्यतः द्विजाति का गुरु अग्नि, वर्णों का गुरु ब्राह्मण, स्त्रियों का गुरु पति और सबका गुरु अतिथि होता है :
गुरुरग्निर्द्विजातीनां वर्णानां बाह्मणो गुरुः । पतिरेको गुरुः स्त्रीणां सर्वेषामतिथिर्गुरुः ॥ ( चाणक्यनीति ) उपनयनपूर्वक आचार सिखाने वाला तथा वेदाध्ययन कराने वाला आचार्य ही यथार्थतः गुरु है ।
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उपनीय गुरुः शिष्यं शिक्षयेच्छौचमादितः । आचारमग्निकार्यञ्चसन्ध्योपासनमेब
च ॥
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गुरु-प्रभाकर
अल्पं वा बहु वा यस्य श्रुतस्योपकरोति यः । तमपीह गुरु विद्याच्छ्र तोपक्रिययातया ॥ षट्त्रिंशदाब्दिकं चर्य्यं गुरौ त्रैवेदिकं व्रतम् । तदद्धकं पादिकं वा ग्रहणान्तिकमेव वा ॥ ( मनु० २.६९; २. १४९, ३ . १ ) वीरशैवों में यह प्रथा है कि प्रत्येक लिङ्गायत गाँव में एक मठ होता है जो प्रत्येक पाँच प्रारम्भिक मठों से सम्बन्धित रहता है । प्रत्येक लिङ्गायत किसी न किसी मठ से सम्बन्धित होता है प्रत्येक का एक गुरु होता है । जङ्गम इनकी एक जाति है जिसके सदस्य लिङ्गायतों के
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गुरु होते हैं ।
जब लिङ्गायत अपने गुरु का चुनाव करता है तब एक उत्सव होता है, जिसमें पाँच पात्र, पाँच मठों के महन्तों के प्रतिनिधि के रूप में, रखे जाते हैं । चार पात्र वर्गाकार आकृति में एवं एक केन्द्र में रखा जाता है । यह केन्द्र का पात्र उस लिङ्गायत के गुरु के मठ का प्रतीक होता है । जब गुरु किसी लिङ्गायत के घर जाता है, उस अवसर पर 'पादोदक' संस्कार ( गुरु का चरण धोना ) होता है, जिसमें सारा परिवार तथा मित्रमण्डली उपस्थित रहती है । गृहस्वामी द्वारा गुरु की षोडशोपचार पूर्वक पूजा की जाती है
धार्मिक गुरु के प्रति भक्ति की परम्परा भारत में अति प्राचीन है । प्राचीन काल में गुरु का आज्ञापालन शिष्य का परम धर्म होता था । गुरु शिष्य का दूसरा पिता माना जाता था एवं प्राकृतिक पिता से भी अधिक आदरणीय था । आधुनिक काल में गुरुसंमान और भी बढ़ा चढ़ा है । नानक, दादू, राधास्वामी आदि संतों के अनुयायी जिसे एक बार गुरु ग्रहण करते हैं, उसकी बातों को ईश्वरवचन मानते हैं ।
विना गुरु की आज्ञा के कोई हिन्दू किसी सम्प्रदाय का सदस्य नहीं सकता । प्रथम वह एक जिज्ञासु बनता है । बाद में गुरु उसके कान में एक शुभ बेला में दीक्षामज्ञ पढ़ता है और फिर वह सदस्य बन जाता है ।
गुरु (प्रभाकर) - छठी शती से आठवीं शती के बीच कर्ममीमांसा के दो प्रसिद्ध विद्वान् हुए; एक प्रभाकर जिन्हें गुरु भी कहते हैं एवं दूसरे कुमारिल, जिन्हें भट्ट कहा जाता है । इन दोनों से मीमांसा के दो सम्प्रदाय चले ।
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