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गालव-गीतगोविन्द
[पिता गार्हपत्य अग्नि और माता दक्षिणाग्नि कहे गिरितनयावत-इस व्रत का अनुष्ठान भाद्रपद, वैशाख गये हैं।]
अथवा मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया को होता है। एक वर्ष गालव-अष्टाध्यायी के सूत्रों में जिन पूर्ववर्ती वैयाकरणों पर्यन्त इसमें गौरी अथवा ललिता का पूजन होना का नाम आया है, गालव उनमें एक है । ऋषियों(७.१.७४) चाहिए । द्वादश मासों में गौरी के भिन्न भिन्न नामों का की सूची में भी गालव की गणना है।
स्मरण करते हुए भिन्न-भिन्न पुष्पों से पूजा करनी चाहिए। गिरनार (गिरिनगर)-सौराष्ट्र (पश्चिम भारत ) का गिरिधर-(१) श्रीकृष्ण का एक पर्याय । गोवर्धन पर्वत एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान । प्राचीन काल से यह योगियों (गिरि ) धारण करने के कारण उनका यह नाम पड़ा। और साधकों को आकृष्ट करता रहा है। काठियावाड़
(२) एक वैष्णव सन्त कवि का नाम भी गिरधर है । का प्राचीन नगर जूनागढ़ गिरनार की उपत्यका में बसा
मराठा भक्तों ने मानभाऊ लोगों की सर्वदा उपेक्षा की है। हुआ है । नगर का एक द्वार गिरनारदरवाजा कहलाता मानभाऊ भी मराठी भाषाभाषी एक प्रकार के पाश्चरात्र है । द्वार के बाहर एक ओर बाघेश्वरी देवी का मन्दिर
वैष्णव है। जिन-जिन मराठी लेखकों तथा कवियों की है। वही वामनेश्वर शिवमन्दिर भी है। यहाँ अशोक रचनाओं से यह उपेक्षा का भाव परिलक्षित होता है, का शिलालेख लगा हुआ है। आगे मुचकुन्द महादेव का उनमें गिरिधर, एकनाथ आदि हैं। सम्भवतः अपनी परमन्दिर है। ये स्थान पहाड़ के दातार शिखर के नीचे म्परावादी स्मात प्रवृत्तियों के कारण ही ये मानभाऊ की ओर हैं। यहाँ पर कई देवालय बने हुए हैं । महाप्रभु सन्तों की उपेक्षा करते थे। वल्लभाचार्य के वंशजों की हवेली (आवास) भी है। गिरिषरजी-वल्लभाचार्य के पुष्टिमार्गीय साहित्य में
प्राचीन काल में यह पर्वत 'ऊर्जयन्त' अथवा 'उज्ज- 'शद्धाद्वैतमार्तण्ड' का विशिष्ट स्थान है। इसके रचयिता यन्त' कहलाता था (दे० स्कन्दगुप्त का गिरनार अभि- गिरिधरजी १६०० ई० के आसपास हए थे। ये अपने लेख) । इस पर्वत की एक पहाड़ी पर दत्तात्रेय की पादुका समय में वल्लभीय अनुयायियों के अध्यक्ष थे। नाभाजी के चिह्न बने हुए हैं। अशोक के शिलालेख से प्रकट है
एवं तुलसीदास भी इनके समसामयिक थे । कि तृतीय शती ई० पू० में यह तीर्थ रूप में प्रसिद्ध हो चुका गिरिनगर-दे० गिरनार । था। रुद्रदामा के जूनागढ़ अभिलेख के प्रारम्भ में ही गिरिशिष्यपरम्परा-शङ्कराचार्य के चार प्रधान शिष्यों में इसका उल्लेख है ( एपिग्रागिया इण्डिका, जिल्द ८, पृ० से सुरेश्वराचार्य ( मण्डन ) प्रमुख थे तथा उन चारों ३६-४२ ) वस्त्रापथ क्षेत्र का यह केन्द्र माना जाता था के दस शिष्य थे, जो 'दसनामी' के नाम से प्रसिद्ध हैं । ये (स्कन्दपुराण, २.२.१-३)। यहाँ सुवर्णरेखा नामक चार गरुओं के नाम पर चार मठों में बँटकर रहने लगे। पवित्र नदी बहती है।
सुरेश्वर के तीन शिष्य-गिरि, पर्वत और सागर ज्योतिगिरि-(१) गिरि अथवा पर्वत हिन्दू धर्म में पूजनीय माने र्मठ ( जोशीमठ ) के अन्तर्गत थे । इस प्रकार गिरि-शिष्यगये हैं। पूजा का आधार धारणशक्ति अथवा गुरुत्व है परम्परा जोशी मठ में सुरक्षित हैं। ( गिरति धारयति पृथ्वी, ग्रियते स्तूयते गुरुत्वाद्वा)। गीतगोविन्द-शृंगार रस प्रधान संस्कृत का गीतकाव्य । पर्वतों में कुलपर्वत विशेष पूजनीय है :
इसके रचयिता लक्ष्मणसेन के राजकवि जयदेव थे। इसमें मेरु मन्दर कैलास मलया गन्धमादनः ।
राधा-कृष्ण के विहार का ललित वर्णन है । महेन्द्रः श्रीपर्वतश्च हेमकूटस्तथैव च ।
राधा का नाम सर्वप्रथम 'गोपालतापिनी उपनिषद्' अष्टावेते तु सम्पूज्या गिरयः पूर्वदिक्क्रमात् ।। में आता है। राधापूजक सम्प्रदायों द्वारा यह ग्रन्थ अति
सम्मानित है। जिन सम्प्रदायों में राधा की आराधना महेन्द्रो मलयः सह्य सानुयानक्षपर्वतः ।
होती है उनमें विष्णुस्वामी एवं निम्बार्कों का नाम विन्ध्यश्च पारियात्रश्च सप्तैते कुलपर्वताः ।। प्रथम आता है। राधा की पूजा एवं गीतों द्वारा प्रशंसा गिरिजा-गिरि ( पर्वत ) हिमालय अथवा हिमालयाधि- उत्तर भारत में माध्वकाल के पूर्व प्रचलित थी, क्योंकि ष्ठित देवता से जन्मी हई पार्वती । दे० 'उमा', 'पार्वती'। जयदेवरचित गीतागोविन्द बारहवीं शती के अन्त की
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