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गणगौरोवत-गणपति
२२३ गणगौरीव्रत-चैत्र शुक्ल तृतीया को विशेष रूप से सधवा शरीर और लम्बा उदर है। इनके चार हाथ और हाथी स्त्रियों के लिए गौरीपूजन का विधान है। कुछ लोग इसे का सिर है, जिसमें एक ही दाँत है, इनके एक हाथ में गिरिगौरीव्रत कहते हैं। दे० अहल्याकामधेनु, पत्रात्मक शंख, दूसरे में चक्र, तीसरे में गदा अथवा अंकुश तथा २५७ । भारत के मध्य भाग, राजस्थान आदि में यह बहुत चौथे में कुमुदिनी है । इनकी सवारी मूषक है। प्रचलित है।
__ गणेश के गजानन और एकदन्त होने के सम्बन्ध में गणपति (गणेश)-गणपति का प्रथम उल्लेख ऋग्वेद पुराणों में अनेक कथाएँ दी हई हैं । दे० 'गजानन' । एक (२.२३.१) में मिलता है :
कथा के अनुसार पार्वती को अपने शिशु गणेश पर बड़ा गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कवि कवीनामुपश्रवस्तमम् । गर्व था। उन्होंने शनिग्रह से उसको देखने को कहा। ज्येष्ठराजं ब्रह्मणा ब्रह्मणस्पत आनः शृण्वन्नूतिभिः सीद शनि की दृष्टि पड़ते ही गणेश का सिर जलकर भस्म हो
सादनम् ।। गया । पार्वती बहुत दुखी हुईं। ब्रह्मा ने उनसे कहा कि शुक्ल यजुर्वेद के अश्वमेधाध्याय में भी गणपति शब्द जो भी प्रथम सिर मिले उसको गणेश के ऊपर रख दिया आया है । ऐसा लगता है कि प्रारम्भिक गणराज्यों के गण- जाय । पार्वती को सबसे पहले हाथी का ही सिर मिला, पतियों के सम्बन्ध में जो भावना थी उसी के आधार पर जिसको उन्होंने गणेश के ऊपर रख दिया । इस प्रकार देवमण्डल के गणपति की कल्पना की गयी। परन्तु यह गणेश गजानन हो गये । दूसरी कथा के अनुसार एक बार शब्द देवताओं के एक विरुद के रूप में प्रयुक्त हुआ है, पार्वती स्नान करने गयीं और गणेश को दरवाजे पर बैठा स्वतन्त्र देवता के रूप में नहीं। किन्तु रुद्र (वैदिक शिव) गयीं । शिव आकर पार्वती के भवन में प्रवेश करना चाहते के गणों से गणपति का सम्बन्ध स्वतन्त्र देवता रूप में थे। गणेश ने रोका। शिव ने क्रोध में आकर गणेश का
सिर काट दिया, परन्तु पार्वती को सन्तुष्ट करने के लिए पुराणों में रुद्र के मरुत् आदि असंख्य गण प्रसिद्ध हैं। हाथी का सिर लाकर गणेश के शरीर में जोड़ दिया । इनके नायक अथवा पति को विनायक या गणपति कहते
तीसरी कथा के अनुसार पार्वती ने स्वयं अपनी कल्पना से हैं । समस्त देवमण्डल के नायक भी गणपति ही हैं, यद्यपि गणेश का सिर हाथी का बनाया । एकदन्त होने की शिवपरिवार से इनका सम्बन्ध बना हुआ है। डॉ० सम्पू
कथा इस प्रकार है कि एक बार परशराम कैलास में शिवर्णानन्द ने अपने ग्रन्थों-'गणेश' तथा 'हिन्दू देवपरिवार का जी से मिलने गये । पहरे पर बैठे गणेश ने उनको रोका। विकास' में गणेश को आर्येतर देवता माना है, जिसका दोनों में युद्ध हुआ। परशुराम के परशु (फर्स) से गणेश क्रमशः प्रवेश और आदर हिन्दू देवमण्डल में हो गया । बहुतेरे
का एक दाँत टूट गया। ये सब कथाएँ काल्पनिक है। लोगों का कहना है कि हिन्दू लघु देवमण्डल, अर्धदेवयोनि इनका प्रतीकात्मक अर्थ यह है कि गणपति का सिर हाथी तथा भूत-पिशाच परिवार में बहुत से आर्येतर तत्त्व मिलते
के समान बड़ा होना चाहिए जो बुद्धिमानी और गम्भीरता हैं । परन्तु गणपति अथवा गणेश में आर्येतर तत्त्व हूँढना का द्योतक है। इनके आयुध भी दण्डनायक के प्रतीक है। कल्पना मात्र है । गणपति का सम्बन्ध प्रारम्भ से ही आर्य गणपति विघ्ननाशक, मंगल और ऋद्धि-सिद्धि के देने वाले, गणों, रुद्रगण तथा शिवपरिवार से है । उनको विघ्नकारी। विद्या और बुद्धि के आगार हैं। प्रत्येक मङ्गलकार्य के और भयंकर गुण ऋक्थ में रुद्र से मिले हैं तथा सिद्धि- प्रारम्भ में इनका आवाहन किया जाता है। प्रत्येक शिवकारी और माङ्गलिक गुण शिव से ।
मन्दिर में गणेश की मति पायी जाती है। गणेश के स्वपुराणों में रूपकों की भरमार है इसलिए गणपति की तन्त्र मन्दिर दक्षिण में अधिक पाये जाते हैं । गणपति की उत्पत्ति और उनके विविध गुणों का आश्चर्यजनक रूपकों पूजा का विस्तृत विधान है। इनको मोदक (लड्डू) विशेष में अतिरंजित वर्णन है। अधिकांश कथाएं ब्रह्मवैवर्त- प्रिय हैं । गणेश की मूर्ति का ध्यान निम्नांकित है : पुराण में पायी जाती है । गणपति कहीं शिव-पार्वती के पुत्र खर्वं स्थूलतनुं गजेन्द्रवदनं लम्बोदरं सुन्दरम् माने गये हैं और कहीं केवल पार्वती के ही। इनके विग्रह प्रस्यन्दन्मदगन्धलुब्धमधुपव्यालोलगण्डस्थलम् । की कल्पना भी विचित्र है। इनका रक्त रंग अथवा मोटा दन्ताघातविदारितारिरुधिरैः सिन्दूरशोभाकरम्
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