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गन्धर्व-गया
गन्धर्व-यह अर्धदेव योनि है । स्वर्ग का गायक है। इसकी गन्धर्ववेद है। .व्युत्पत्ति है : 'गन्ध' अर्थात् सङ्गीत, वाद्य आदि से उत्पन्न गन्धाष्टक-आठ सुगन्धित पदार्थों का समूह । सभी व्रतों प्रमोद को 'अव' प्राप्त करता है जो । स्तुतिरूप तथा गीतरूप में गन्ध से परिपूर्ण अष्ट द्रव्यों का सम्मिश्रण थोड़ी भिन्नता वाक्यों अथवा रश्मियों का धारण करने वाला गन्धर्व है। के साथ पृथक्-पथक देवताओं को अर्पित करना चाहिए। उसकी विद्या गान्धर्व विद्या वा गान्धर्व उपवेद है। गन्धर्व देवताओं में शक्ति, विष्णु, शिव तथा गणेशादि की गणना उन देववर्गों का नाम है जो नाचते, गाते और बजाते है। 'शारदातिलक' के अनुसार देवताभेद से गन्धाष्टक हैं। गीत. वाद्य और नत्य तीनों का आनुषङ्गिक सम्बन्ध निम्नलिखित प्रकार के हैं : है । गाने का अनुसरण वाद्य करता है और वाद्य का नृत्य । चन्दनागुरु-कर्पूर-चोर-कुङ्कुम-रोचनाः । साधारणतः लौकिक सङ्गीतशास्त्र के प्रवर्तक भरत समझे जटामांसी कपियुता शक्तर्गन्धाष्टकं विदुः ।। जाते हैं और दिव्य के भगवान् शङ्कर । परलोक में किन्नर, चन्दनागुरु-ह्रीवेर-कुष्ठ-कुङ्कम-सेव्यकाः । गन्धर्व आदि सङ्गीतकला का व्यवसाय करने वाले समझे जटामांसी सुरमिति विष्णोर्गन्धाष्टकं विदुः॥ जाते हैं। इनकी गणना शङ्कर के गणों में है।
चन्दनागुरु-कर्पूर-तमाल-जलकुङ्कमम् । जटाधर के अनुसार गन्धर्वी के निम्नलिखित भेद हैं : कुशीदं कुष्ठसंयुक्त शैवं गन्धाष्टकं शुभम् ।। हाहा हुहूश्चित्ररथो हंसो विश्वावसुस्तथा ।
स्वरूपं चन्दनं चोरं रोचनागुरुमेव च । गोमायुस्तुम्बुरुनन्दिरेवमाद्याश्च ते स्मृताः ।।
मदं मृगद्वयोद्भूतं कस्तूरी चन्द्रसंयुतम् ॥ अग्निपुराण के गणभेद नामक अध्याय में गन्धर्वो के गन्धाष्टकं विनिर्दिष्टं गणेशस्य महेशि तु ।। ग्यारह गण अथवा वर्ग बताये गये हैं :
गया-हिन्दुओं के पितरों की श्राद्धभूमि । इसके ऐतिहासिक, अभ्राजोऽङ्घारिवम्भारि सूर्यवध्रास्तथा कृधः । पौराणिक तथा शिल्पकला सम्बन्धी अवशेषों के वर्णन से हस्तः सुहस्तः स्वाञ्च व मूद्धन्वांश्च महामनाः ।। ग्रन्थों के सैकड़ों पृष्ठ भरे पड़े हैं। किन्तु गया के सम्बन्ध विश्वावसुः कृशानुश्च गन्धर्वंद्वादशा गणाः ॥
में दिये गये प्रायः सभी मत कुछ न कुछ सीमा तक शब्दार्थचिन्तामणि के अनुसार दिव्य और मर्त्य भेद से विवादास्पद हैं । गया के पुरोहित मध्वाचार्य द्वारा स्थापित गन्धर्वो के दो भेद हैं। दिव्य गन्धर्व तो स्वर्ग और आकाश वैष्णव सम्प्रदाय में आस्था रखते हैं और प्रायः महन्तों का में रहते हैं, मर्त्य गन्धर्व पृथ्वी पर जन्म लेते हैं। दिव्य जैसा आचरण करते हैं । कहा जाता है कि गया भगवान् गन्धर्व का उल्लेख ऋग्वेद (१०.१३९. :५) में मिलता है : विष्णु का पवित्र स्थल है । परन्तु वनपर्व में यह संकेत है विश्वावसुरभि तन्नो गृणातु
कि गया यम (धर्मराज), ब्रह्मा तथा शिव का भी एक दिव्यो गन्धर्वो रजसो विमानः ।
प्रमुख पवित्र स्थान है। इसी प्रकार महाभारत (३. १६१.२६) में :
वेदों और पुराणों में 'गया' शब्द विभिन्न स्थलों पर स तमास्थाय भगवान् राजराजो महारथम् । भिन्न-भिन्न रूपों में प्रयुक्त हुआ है। गय नाम ऋग्वेद की प्रययौ देवगन्धर्वैः स्तूयमानो महाद्युतिः ।। कुछ ऋचाओं के रचयिता के लिए प्रयुक्त हुआ है । वेदमर्त्य गन्धर्व की चर्चा इस प्रकार है :
संहिताओं में तो यह नाम असुरों और राक्षसों के लिए भी अस्मिन् कल्पे मनुष्यः सन् पुण्यपाकबिशेषतः । आया है । इनमें गयासुर का नाम उल्लेखनीय है । निरुक्त गन्धर्वत्वं समापन्नो मर्त्यगन्धर्व उच्यते ।। (१२.१९) में गयशिर नाम आया है, जिस पर भगवान्
स्कन्दपुराण के काशीखण्ड में गन्धर्वलोक का सविस्तर विष्णु पाँव रखते थे। महाभारत, विष्णुधर्मसूत्र तथा वामनवर्णन है । यह लोक गुह्यकलोक के ऊपर और विद्याधर- पुराण (२२.२०) में गयशिर नाम के स्थल को ब्रह्मा की लोक के नीचे है।
पूर्वी वेदी माना गया है और बौद्ध ग्रन्थों में भी यह नाम गन्धर्ववेद-शौनक के चरणव्यूह के अनुसार सामवेद का ___ गया के प्रमुख स्थल के लिए आया है । अश्वघोष के बुद्धउपवेद गन्धर्ववेद है। दे० 'उपवेद' । गन्धर्वसम्बन्धित चरित से प्रकट है कि महात्मा बुद्ध एक राजर्षि के आश्रम सङ्गीतरूप कला अथवा विद्या जिससे जानी जाय वह (गया) में गये और वहाँ उन्होंने नयरंजना (निरंजना) नदी
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