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ख-खजुराहो
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दोष होते हैं, अतः इन दिनों में क्षौर वर्जित है।] किन्तु उवाच चैनं भूयोऽपि नारायणमिदं वचः । नट, भाण, भृत्य, राजसेवक आदि के लिए तथा व्रत, तीर्थ अजरश्चामरश्च स्याममृतेन विनाप्यहम् ।। आदि में निषेध नहीं है। भोजन के पश्चात् क्षौर नहीं एवमस्त्विति तं विष्णुरुवाच विनतासुतम् । कराना चाहिए। शिशु के प्रथम क्षौरकर्म को 'चूडाकरण' प्रतिगृह्य वरौ तौ च गरुडो विष्णुमब्रवीत् ।। कहते हैं । दे० 'चूडाकरण' ।
भवतेऽपि वरं दद्यां वृणोतु भगवानपि । तं ववे वाहनं विष्णुर्गरुत्मन्तं महाबलम् ॥
ध्वजञ्च चक्रे भगवानुपरि स्थास्यसीति तम् । ख-व्यञ्जन वर्णों के अन्तर्गत कवर्ग का द्वितीय अक्षर ।
एवमस्त्विति तं देवमुक्त्वा नारायणं खगः । वर्णाभिधानतन्त्र में इसका स्वरूप इस प्रकार कहा
ववाज तरसा वेगाद् वायुं स्पर्धन् महाजवः ॥ गया है:
[ भगवान् (विष्णु ) ने आकाश में उड़ने वाले गरुड खः प्रचण्डः कामरूपी शुद्धिर्वह्निः सरस्वती । आकाश इन्द्रियं दुर्गा चण्डी सन्तापिनी गुरुः ॥
से कहा, मैं तुम्हें वर देना चाहता हूँ। आकाशगामी गरुड
ने वर माँगते हए कहा, आपके ऊपर मैं ब→। उसने फिर शिखण्डी दन्तो जातीशः कफोणि गरुडो गदी। शून्यं कपाली कल्याणी सूर्पकर्णोऽजरामरः ।।
नारायण से यह वचन कहा, अमृत के विना मैं अजर
और अमर हो जाऊँ। विष्णु ने गरुड़ से कहा, ऐसा ही शुभाग्नेयश्चण्डलिंग जनो झंकारखड्गको ।
हो। उन दोनों वरों को ग्रहण कर गरुड़ ने विष्णु से वर्णोद्धारतन्त्र में इसका ध्यान इस प्रकार बतलाया गया है :
कहा, मैं आपको वर देना चाहूँगा, वरण कीजिए । विष्णु बन्धूकपुष्पसंकाशां रत्नालङ्कारभूषिताम् ।
ने कहा, मैं तुम्हें वाहनरूप में ग्रहण करता हूँ। उन्होंने वराभयकरी नित्यां ईषद्हास्यमुखी पराम् ।
ध्वज बनाया और कहा, तुम इसके ऊपर स्थित होगे । एवं ध्यात्वा खस्वरूपां तन्मन्त्रं दशधा जपेत् ।।
गरुड़ ने भगवान् नारायण से कहा, ऐसा ही होगा। मातृकान्यास में यह अक्षर बाह में स्थापित किया
इसके पश्चात् अत्यन्त गति वाला गरुड़ वायु से स्पर्धा जाता है।
करता हुआ अत्यन्त वेग से प्रस्थान कर गया । ] दे० ख के अर्थ हैं इन्द्रिय, शून्य, आकाश, सूर्य, परमात्मा ।
___ 'विष्णु' और 'गरुड़। खखोल्क-काशीपुरी में स्थित एक सूर्य देवता। इनका खगेन्द्र-खग ( पक्षियों) का इन्द्र (राजा), गरुड । माहात्म्य काशीखण्ड में वर्णित है :
महाभारत ( १.३१.३१ ) में कथन है : काशीवासिजनानेकरूपपापक्षयंकरः
।
'पतत्रिणाञ्च गरुड इन्द्रत्वेनाभ्यषिच्यत ।' विनतादित्य इत्याख्यः खखोल्कस्तत्र संस्थितः ।। [गरुड का पक्षियों के इन्द्र के रूप में अभिषेक हआ।] काश्यां पैलंगिले तीर्थ खखोल्कस्य विलोकनात् । दे० 'गरुड़'। नरश्चिन्तितमाप्नोति नीरोगो जायते क्षणात् ।।
खजुराहो ( खर्जूरवाह )—यह स्थान मध्य प्रदेश में छतरकहते हैं कि नागमाता कदू और गरुडमाता विनता
पुर के पास स्थित है। प्राचीन काल में चन्देल राजाओं ( दोनों सौतें ) लड़ती हुई सूर्य की ओर गयीं तो कद्रू ने
___ की यहाँ राजधानी थी। अपने समय में यह तीर्थस्थल घबड़ाहट में सूर्य को उल्का समझा और 'ख, ख, उल्का' था। आर्य शैली ( नागर शैली) के मन्दिरों में भारतीय ऐसा कह दिया । विनता ने इसी को सूर्य का नाम मानकर
वास्तुकला का सुन्दरतम विकास खजुराहो के मन्दिरों में प्रतिष्ठित कर दिया।
पाया जाता है। इनका निर्माण चन्देल राजाओं के संरखगासन-खग = गरुड है आसन जिसका, विष्णु । विष्णु क्षण में ९५० ई० से १०५० ई० के मध्य हुआ, जो संख्या
का आसन गरुड कैसे हुआ, इसका वर्णन महाभारत । में लगभग ३० हैं तथा वैष्णव, शैव और जैन मतोंसे (१.३३.१२-१८) में पाया जाता है :
सम्बन्धित हैं। प्रत्येक मन्दिर लगभग एक वर्गमील के तमुवाचाव्ययो देवो वरदोऽस्मीति खेचरम् ।
क्षेत्रफल में स्थित है। कन्दरीय महादेव का मन्दिर स ववे तव तिष्ठेयमुपरीत्यन्तरीक्षगः ।। इस समुदाय में सर्वश्रेष्ठ है। मन्दिरों में गर्भगृह, मण्डप,
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