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क्षपणक-क्षौरकर्म
के लक्षण और कर्तव्यों का विस्तृत वर्णन पाया जाता है जो मनु आदि स्मृतियों से मिलता-जुलता है । क्षपणक-जैन अथवा बौद्ध संन्यासी । जटाधर के अनुसार यह बुद्ध का ही एक प्रकार अथवा भेद है । क्षपणक प्रायः नग्न रहा करते थे। महाभारत (१.३.१२) में क्षपणक का उल्लेख है :
सोऽपश्यदथ पथि नग्नं क्षपणक मागच्छन्तम् । क्षपावन-क्षपा = रात्रि में, अवन = रक्षक-राजा । इस शब्द से राजा के एक महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य-रात्रि में रक्षण का ज्ञान होता है। रात्रि में निशाचरों, चोरों और हिंस्र जानवरों का भय अधिक होता है । इनसे प्रजा की रक्षा करना राजा का कर्तव्य है। इसलिए उसका एक विरुद 'क्षपावन' है। क्षीरधाराव्रत-दो मासों की प्रतिपदा तथा पञ्चमी के दिन व्रती को केवल दुग्वाहार करना चाहिए। इस प्रकार के आचरण से अश्वमेध यज्ञ के फल की प्राप्ति होती है । दे० लिङ्गपुराण, ८३.६ । क्षीरधेनु-क्षीरधेनु का दान धार्मिक कृत्य है । दान के लिए भीर धादिनिति को भी रोक वराह पुराण के श्वेतोपाख्यान के क्षीरधेनु महात्म्य नामक अध्याय में इसका वर्णन पाया जाता है। क्षीरप्रतिपदा-वैशाख अथवा कार्तिक की प्रतिपदा के दिन इस व्रत का अनुष्ठान होता है। एक वर्षपर्यन्त इसका आचरण होना चाहिए । ब्रह्मा इसके देवता हैं । निम्नांकित शब्दों का उच्चारण करते हुए व्रती को अपने सामर्थ्यानुसार दुग्ध समर्पित करना चाहिए : "ब्रह्मन् प्रसीदतु माम् ।" कुछ धार्मिक ग्रन्थों के पाठ का भी इसमें विधान है। क्षुद्रसूत्र-ऋचाओं को साम में परिणत करने की विधि के सम्बन्ध में सामवेद के बहुत से सूत्रग्रन्थ हैं। इनमें एक 'क्षुद्रसूत्र' भी है । इसमें तीन प्रपाठक हैं। क्षरिकोपनिषद-योग सम्बन्धी उपनिषदों में से एक । इसमें योग की प्रक्रियाओं का वर्णन किया गया है। मनोविकारों को यह उपनिषद् (चिन्तन) छुरी की तरह काट देती है। क्षेत्रपाल-खेत अथवा भूमिखण्ड का रक्षक देवता। गृहप्रवेश या शान्तिकर्मों में क्षेत्रपाल को बलि देकर प्रसन्न किया जाता है। सिन्दूर, दीपक, दही, भात आदि सजाकर चौराहे पर क्षेत्रपाल के लिए रखने की विधि है।
क्षेमराज-अभिनवगुप्त के शिष्य क्षेमराज का जन्म ११वीं शती में कश्मीर में हआ। कश्मीरी शैवमत के आचार्यों में इनकी गणना होती है। इन्होंने वसुगुप्त रचित 'शिवसूत्र' पर 'शिवसूत्रविशिनी नामक व्याख्या लिखी है। इस ग्रन्थ में अनेकों आगमों के उद्धरण पाये जाते हैं । क्षेमव्रत-चतुर्दशी के दिन यह व्रत किया जाता है । इसमें यक्ष-राक्षसों के पूजन का विधान है। दे० हेमाद्रि, २.१५४। चतुर्दशी तिथि ऐसे ही प्राणियों के पूजनार्थ निश्चित है। क्षौरकर्म-सामान्यतः क्षौरकर्म शारीरिक प्रसाधन है, जिसमें केश, दाढ़ी-मँछ, नखों को कतर कर देह सजा दी जाती है। परन्तु व्रतों और संस्कारों में इसका धार्मिक महत्त्व भी है। व्रतादि में क्षौरकर्म न करने से दोष होता है :
व्रतानामुपवासानां श्रद्धादीनाञ्चं संयमे । न करोति क्षौरकर्म अशुचिः सर्वकर्मसु ।।
__ (ब्रह्मवैवर्त, प्रकृतिखण्ड, २७ अध्याय) [जो व्रत, उपवास, श्राद्ध, संयम आदि में क्षौरकर्म नहीं करता है वह सभी कर्मों में अपवित्र रहता है । ] 'शुद्धितत्व' में क्षौर का विधान इस प्रकार है : 'केशश्मश्रुलोमनखानि वापयीत शिखावर्जम्' । [ शिखा छोड़कर केश (सिर के बाल), दाढ़ी, रोयें और नख को कटाना चाहिए।] निम्नांकित तिथियों और कर्मी में क्षौर कर्म निषिद्ध है :
रोहिण्याञ्च विशाखायां मैत्र चैवोत्तरासु च । मघायां कृत्तिकायाञ्च द्विजैः क्षौर विजितम् ।। कृत्वा तु मैथुनं क्षौरं यो देवान् तर्पये पितृन् । रुधिरं तद्भवेत्तोयं दाता च नरकं व्रजेत् ।।
(ब्रह्मवैवर्तपुराण) 'कर्मलोचन' नामक पद्धति में क्षौर कर्म सम्बन्धी और भी निषेध पाये जाते हैं :
नापितस्य गृहे क्षौरं शक्रादपि हरेत् श्रियम् । रवौ दुःखं सुखं चन्द्रे कुजे मृत्युबुधे धनम् ।। मानं हन्ति गुरोर्वारे शुक्र शुक्रक्षयो भवेत् । शनौ च सर्वदोषाः स्युः क्षौर मत्र विवर्जयेत् ॥
[नापित के घर में जाकर क्षौरकर्म कराना इन्द्र की शोभा को भी हर लेता है। रविवार को क्षौरकर्म दुःख, चन्द्रवार को सुख, मंगल को मृत्यु, और बुध को धन उत्पन्न करता है। गुरुवार को मान का हनन करता है । शुक्र को क्षौरकर्म से शुक्रक्षय होता है। शनिवार को क्षौर से सभी
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