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कौशिकसूत्र-क्रममुक्ति
२१३ कौशिकसूत्र-यह अथर्ववेद से सम्बन्धित प्रथमतः गृह्यसूत्र सायणाचार्य ने ऐतरेय एवं कौषीतकि दोनों आरण्यकों के है। इसमें ऐन्द्रजालिक उत्सवों का वर्णन भी विशद रूप से भाष्य लिखे हैं। मिलता है तथा जो बातें अथर्ववेद में अस्पष्ट हैं वे कौषीतकि उपनिषद्-ऋग्वेद के कौषीतकि नामक ब्राह्मण सुस्पष्ट कर दी गयी हैं।
के इसी नाम वाले आरण्यक का तीसरा खण्ड 'कौषीतकि गोपथब्राह्मण के अनुसार अथर्ववेदसंहिता के पाँच
उपनिषद्' कहलाता है। विशेष विवरण के लिए दे०
'कौषीतकि आरण्यक' । सूत्रग्रन्थ है-कौशिकसूत्र, वैतानसूत्र, नक्षत्रकल्पसूत्र,
कौषीतकिब्राह्मण-ऋग्वेद की दो शाखाओं-ऐतरेय एवं आङ्गिरसकल्पसूत्र एवं शान्तिकल्पसूत्र । कौशिकसूत्र को ही
कौषीतकि के इन्हीं नामों के दो ब्राह्मण हैं । कौषीतकि को 'संहिताविधिसूत्र' भी कहते हैं। बहुत से सूत्रग्रन्थों में
शाङ्खायन भी कहते हैं । कृष्ण यजुर्वेद के ब्राह्मण भाग के अतिअथर्ववेद के प्रतिपाद्य कर्मों का विधान अत्यन्त सूक्ष्म रूप
रिक्त सामान्ययज्ञादि विषयक महत्त्वपूर्ण छः ब्राह्मणग्रन्थ हैं । से किया गया है, जिससे वे दुर्बोध हो गये हैं। इन्हें ही
ये है-ऐतरेय; कौषीतकि, पञ्चविंश, तलवकार, तैत्तिरीय सुबोध कर देने के लिए कौशिकसूत्र का संग्रह हुआ है। कौशिकसूत्र में १. स्थालीपाकविधान में दर्शपूर्णमास विधि
एवं शतपथ । कौषीतकि ब्राह्मण का अंग्रेजी अनुवाद प्रो०
कीथ द्वारा एवं विश्लेषण डॉयसन द्वारा हुआ है । २. मेधाजनन ३. ब्रह्मचारीसम्पद् ४. ग्राम-दुर्ग-राष्ट्रादि
क्रतुरत्नमाला-शाङ्खायन श्रौतसूत्र पर लिखा गया एक लाभ विषय ५. पुत्र-पशु-धन-धान्य-प्रजा-स्त्री-करि-तुरग
भाष्य क्रतुरत्नमाला के नाम से प्रसिद्ध है । इसके रचयिता रथ-दोलकादि सर्वसम्पत्साधक समूह ६. मानवगण में
श्रीपति के पुत्र विष्णु कहे जाते हैं। ऐकमत्य सम्पादक सौमनस्यादि विषयों का वर्णन है।
क्रमदीपिका--केशव काश्मीरी निम्बार्कों के एक दिग्विजयी कोषीकाराम-आपस्तम्ब सूत्र के भाष्यकारों में से एक
नेता, विद्वान् एवं भाष्यकार हो गये हैं। उनकी क्रमकौशिकाराम भी है।
दीपिका नामक पुस्तक यज्ञ, पूजार्चन आदि पर एक गौरवपूर्ण कौषीतकि आरण्यक-वेद के चार भाग हैं-संहिता, ब्राह्मण,
रचना है, जो गौतमीय तन्त्र की चनी हई सामग्रियों का आरण्यक एवं उपनिषद् । ऋग्वेद का यह आरण्यक भाग
संग्रह है। इसकी रचना १६वीं शती के प्रारम्भ में हुई थी। है। आरण्यकों में ऋषियों का निर्जन अरण्यों में रहकर ब्रह्म
क्रमपूजा-कृत्यरत्नाकर में (१४१-१४४, देवीपुराण से विद्या अध्ययन तथा उनके द्वारा अनेक गम्भीर अनुभूत विचार लोककल्याणार्थ दिये हए है। कौषीतकि आरण्यक
उद्धृत) लिखा है कि चैत्र शुक्ल पक्ष में दुर्गा का पूजन होना
चाहिए । कुछ विशेष तिथियों तथा नक्षत्रों के अवसर पर के तीन खंड हैं, जिनमें दो खंड प्रधान है, जो कर्मकांड से
इससे पुण्य, सुख, समृद्धि की प्राप्ति होती है। भरे पड़े है । तीसरा खंड कौषीतकि उपनिषद् कहलाता क्रममक्ति-क्रमशः मुक्ति प्राप्त करने का सिद्धान्त । इस विषय है। यह एक सारगर्भ उपादेय ग्रन्थ है। आनन्दमय धाम
पर शङ्कर द्वारा वेदान्तसूत्र (३.३.२९) पर व्याख्यान प्राप्त में कैसे प्रवेश किया जाय और उस आनन्द का उपभोग होता है । उनका कहना है कि देवयान और पितयान दो किस प्रकार किया जाय इस बात पर अनेक अध्यायों में मार्ग हैं । पितृयान जन्म-मरण का मार्ग है। देवयान से विचार हुआ है। गृह्यकृत्य, पारिवारिक बन्धन आदि में क्रममुक्ति का मार्ग प्रारम्भ होता है । परन्तु निर्गुण ब्रह्म का बँधे हए लोगों के मन के भीतर उस समय में अत्यन्त सर्वोच्च ज्ञान रखने वाले संत तो पहले ही ब्रह्म के साथ कोमल हृदय की वृत्तियों ने किस प्रकार विकास किया है, एकत्व की प्राप्ति कर चुकते हैं तथा उनके लिए किसी देवइसका बहुत ही सुन्दर चित्र दूसरे अध्याय में मिलता है। यान (देवपथ) पर चलने की आवश्यकता नहीं है । जो तीसरे अध्याय में ऐतिहासिक वृत्तान्त और इन्द्र के युद्धादि लोग केवल सगुण ब्रहा का ही ज्ञान रखते हैं, वे इस पथ पर के उपाख्यान दिये गये हैं। चौथा अध्याय भी आख्यानों से अग्रसर होते हैं। वे ब्रह्म को प्राप्त कर पुनः लौटते नहीं। भरा है । काशिराज वीरेन्द्रकेशरी ने एक ज्ञानी ब्राह्मण सगुण ब्रह्म से एकत्व प्राप्त कर अन्त में पूर्ण ज्ञान प्राप्त को जो उपदेश दिया था वह भी इस अध्याय में वर्णित करते हैं । इस प्रतीक्षाकाल तथा अपूर्ण ज्ञान के काल में है । इसमें भौगोलिक बातें भी हैं । हिमवान और विन्ध्यादि आत्मा को पूर्ण आनन्द एवं अजेय इच्छाशक्ति प्राप्त होती पर्वतों के नाम और पहाड़ियों के नाम भी पाये जाते हैं। है (यही ऐश्वर्य कहलाता है)। जब वह सर्वोच्च प्रकाश के
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