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केदारगौरीव्रत-केवल
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में उनकी गति और क्रूर फल का विस्तृत वर्णन मिलता जनमेजय ने क्षीरगङ्गा, स्वर्गद्वारगङ्गा, सरस्वती और है। दे० गर्गसंहिता, बृहत्संहिता आदि ग्रन्थ । आधुनिक मन्दाकिनी के सङ्गम के बीच के भूक्षेत्र का दान इस ग्रन्थकारों में मथुरानाथ विद्यालङ्कार ने अपने समयामृत उद्देश्य से किया कि आनन्द लिङ्ग जङ्गम के शिष्य केदारनामक ग्रन्थ में केतु के उत्पातों का सविस्तार विवरण क्षेत्रवासी ज्ञानलिङ्ग जङ्गम इसकी आय से भगवान् किया है।
केदारेश्वर की पूजा-अर्चा किया करें। अभिलेख के अनुसार __ ऋग्वेद (१०.८.१) में सूर्य और उसकी रश्मियों के लिए यह दान उन्होंने मार्गशीर्ष अमावस्या सोमवार को युधि'केतु' शब्द का प्रयोग हुआ है (देवं वहन्ति केतवः)। ष्ठिर के राज्यारोहण के नवासी वर्ष बीतने पर प्लवङ्गम केदार-गौरीव्रत-कार्तिकी अमावस्या के दिन इस व्रत का नामक संवत्सर में किया था । भूतपूर्व टीहरी राज्य के राजा अनुष्ठान होता है। इस तिथि को गौरी तथा केदार शिव इस पीठ के शिष्य हैं और भारत के तेरह नरेश (जिनमें के पूजन का विधान है। 'अहल्याकामधेनु' के अनुसार नेपाल, कश्मीर और उदयपुर भी हैं) प्रति वर्ष अपनी ओर यह व्रत दाक्षिणात्यों में विशेष प्रसिद्ध है। इस ग्रन्थ में से पूजा और भेंट करते रहे हैं। इस मठ के अधीन अनेक पद्मपुराण से एक कथा भी उद्धृत की गयी है।
शाखामठ है। केदारनाथ-शिव का एक पर्याय । इसकी व्युत्पत्ति इस केनोपनिषद-सामवेदीय उपनिषद् ग्रन्थों में छान्दोग्य एवं प्रकार बतायी गयी है : 'के' (मस्तक में) 'दारा' (जटा के केनोपनिषद् प्रसिद्ध है। इस उपनिषद् का दूसरा नाम भीतर गङ्गारूपिणी पत्नी) हैं जिनकी। केदारनाथ एक तलवकार है । यह तलवकार ब्राह्मण के अन्तर्गत है । कहा तीर्थ भी है जो उत्तराखण्ड के शव तीर्थों में यह अत्यन्त
जाता है कि डाक्टर वारनेल ने तंजौर में इस तलवकार पवित्र माना गया है । इसके लिए यात्रा प्रारम्भ करने मात्र ब्राह्मण ग्रन्थ को पाया था। इसके १३५ से लेकर १४५वें से सब पापों का क्षय हो जाता है।
खण्ड तक को 'तलवकार उपनिषद्' अथवा 'केनोपनिषद्' ___ हठयोग में भ्रमध्य के स्थानविशेष को केदार कहा गया
माना जाता है । छान्दोग्य एवं केन पर शङ्कराचार्य के भाष्य है । हठयोगदीपिका (३.२४) में कथन है :
हैं तथा अन्य आचार्यों ने अनेक वृत्तियाँ और टीकाएँ कालपाशमहाबन्धविमोचनविचक्षणः ।
लिखी हैं। उपनिषद् का केन' नाम इसलिए पड़ा कि त्रिवेणीसङ्गमं धत्ते केदारं प्रापयन्मनः ।।
इसका प्रारम्भ 'केन' (किसके द्वारा) शब्द से होता है। इस टीका में स्पष्ट किया गया है :
इसमें उस सत्ता का अन्वेषण किया गया है जिसके द्वारा दोनों भौंहों के बीच में शिव का स्थान है। वह केदार ।
सम्पूर्ण विश्व का धारण और सञ्चालन होता है।
केरलोत्पत्ति-शङ्कर के आविर्भावकाल के निर्णायक प्रमाण शब्द से वाच्य है। उसी पर अपना मन केन्द्रित करना चाहिए।
ग्रन्थों में केरलोत्पत्ति का भी एक प्रमुख स्थान है । इसके
अनुसार शङ्कर का कलिवर्ष ३०५७ में आविर्भाव हुआ । वीर शैवमत की व्यवस्था के अन्तर्गत प्रारम्भिक पाँच
शङ्कर का जीवनकाल भी इसमें ३२ वर्ष के स्थान पर मठ मुख्य थे । इनमें केदारनाथ (हिमालय प्रदेश) का स्थान
३८ वर्ष लिखा है। किन्तु यह परम्परा प्रामाणिक नहीं प्रथम है। इसके प्रथम महन्त एकोरामाराध्य कहे जाते
जान पड़ती। आचार्य शङ्कर की प्राचीनता प्रदर्शित करने हैं । भक्तों का विश्वास है कि श्री केदारजी के रामनाथ
के लिए यह मत प्रचलित किया गया लगता है। लिङ्ग से, जो भगवान् शिव के अघोर रूप हैं, एको रामाराध्य प्रकट हुए थे।
केरेय पद्मरस-कन्नड वीरशैव साहित्य में पद्मराज नामक उत्तराखण्ड का केदारेश्वर मठ बहुत प्राचीन है । इसकी
पुराण का स्थान महत्त्वपूर्ण है। इसमें 'के रेय पद्मरस' की प्राचीनता का महत्त्वपूर्ण प्रमाण एक ताम्रशासनपत्र से
कथा लिखी गयी है। इस पुराण की रचना सन् १३८५ होता है जो उसी मठ में कहीं सुरक्षित है। इसके ई० में पद्मनाङ्क ने की थी। अनुसार महाराज जनमेजय के राजत्व काल में स्वामी केवल-भक्तिमार्ग में आत्मा को चार श्रेणियों में बांटा गया आनन्दलिङ्ग जङ्गम इस मठ के गुरु थे। उन्हीं के नाम है : बद्ध, मुमुक्ष, केवल एवं मुक्त । केवल अवस्था को
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